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महात्मा गांधी ने गऊओं के बारे में बहुत सुंदर बात कही थी : “गाय का अर्थ मैं मनुष्य के नीचे की सारी गूँगी दुनिया करता हूँ। इसमें गाय के बहाने इस तत्त्व के द्वारा मनुष्य को सम्पूर्ण चेतन-सृष्टि के साथ आत्मीयता का अनुभव कराने का प्रयत्न है। गाय दयाधर्म की मूर्तमंत कविता है।” (यंग इंडिया, ६-१०-१९२१)
मनुष्य के नीचे की सारी गूँगी दुनिया! एक मनुष्यों का संसार है- भाषा का। एक पशुओं का है- निर्वाक्। मूक प्राणियों का लोक। गाय इस लोक की प्रतिनिधि प्राणमूर्ति है। हर प्राणी अपने में अद्वितीय है, पर गैय्या को प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहने का मन होता है। उसमें जो धैर्य है, उदारता है, सरलता और सहिष्णुता है और जैसा परोपकार है- वह अनेकानेक मनुष्यों को लज्जित करने को पर्याप्त है, जो स्वयं को उनसे अधिक गुणी समझता है। और जैसा महात्मा गांधी ने कहा है, मनुष्य को सम्पूर्ण चेतन-सृष्टि के साथ आत्मीयता का अनुभव कराने का प्रयत्न। गो-वत्सलता से वह मार्ग खुलता है। उसी से चूके तो फिर जुड़ना कठिन है। सृष्टि से सम्पृक्ति कैसे हो, जो गैय्या से ही न हो सकी?
बहुत दिनों पहले की बात है, संध्यावेला में चला जा रहा था। देखा, एक गाय लंगड़ाते सड़क पार कर रही है। भारी यातायात था। तुरंत गाड़ी रोकी और हाथ देकर दूसरे वाहनों को रुकवाया कि गैय्या सड़क पार करती है और लंगड़ी है, तनिक रुको। सब बारी-बारी ब्रेक लगाकर ठहरे। वह धेनु दूसरी ओर गई, सामने ही गायों का कोई बाड़ा था। जाते-जाते देखा, मार्ग में एक झाड़ी को उसने व्यथा से झिंझोड़ दिया। कितनी पीड़ा में रही होगी!
उसके बहुत दिनों के बाद उसी मार्ग से जाना हुआ तो वही सड़क, गायों का वही बाड़ा दीखा। मन हुआ कि जाकर पूछूँ वह गैया यहीं रहती है? भीतर गया। पूछा, एक गाय थी, लंगड़ाती थी, उसका क्या बना? मुझे बतलाया कि वह गाय तो मर गई, बहुत दिन पीड़ा में रही। कोई वाहन टक्कर मार गया था, तभी से लंगड़ाती थी। घाव बढ़ गया था।
मैं चुपचाप लौट आया। तीव्र यातायात में सड़क पार करने का यत्न करती दीनता की वह मूर्ति देर तक आँखों के आगे झिलमिलाती रही। उसका झाड़ियों को झिंझोड़ देना। वे झाड़ियाँ अब नि:स्पन्द थीं। प्राण की एक लहर उन्हें स्पर्श कर बीत रही थी।
“गाय दयाधर्म की मूर्तमंत कविता है।” सच ही तो! जाने क्या बात है गैय्याओं में, जो उनमें करुणा का सागर छलकता दीखता है। वो मेरे मन में अपार दयाभाव जगाती हैं। गोमाता के साथ किसी भी तरह की क्रूरता, शोषण, अनाचार तब शिशुओं के साथ क्रूरता, शोषण, अनाचार के समकक्ष ही मालूम होता है। वे भी वैसे ही दोषहीन हैं, जैसे यह। वे भी भगवत्सत्ता के वैसे ही निकट हैं, जैसे यह। और एक यह संसार है- जिसने गोवध के महापाप की गठरी सिर पर उठा रखी है। इस संसार में श्वास लेना दूभर मालूम होता है!
अभी फ़ेसबुक पर ही एक वीडियो देखा, विदेश का। एक गैय्या जन्मांध थी। डेयरी उद्योग ने उसे अनुपयोगी समझकर त्याग दिया। कुछ भलेमानुषों ने उसे अपने रेस्क्यू फ़ार्म पर आश्रय दिया। नेत्र नहीं थे तो कर्ण की इंद्री जाग उठी थी, संगीत जहाँ भी बजता वह चाव से सुनती। घंटियाँ भी बजावें तो एकाग्रचित्त हो ध्यान धरती। गोशाला में उपस्थित अन्य गोवंश को चाटती-सहलाती। वह देख मेरा कंठ रूँध गया।
जन्मांध! स्वार्थ से भरे संसार में उस जीव का एक इंद्री कम लेकर जन्मना, फिर भी मानुषों का स्नेह पा जाना। यह चमत्कार से कम नहीं। उन रेस्क्यू-फ़ार्म वालों को चरणस्पर्श करने का तब मुझे भाव हुआ। और यह पुकार प्राणों में गूँजी कि क्यों नहीं समस्त मनुष्य-जाति अपने से नीचे की गूँगी दुनिया को ऐसे ही स्नेह करती है? क्यों वह उनको कष्ट देती है? जो बोल नहीं सकता, वह तो और सेवा-टहल का पात्र हुआ ना?
भोपाल में जहाँ मेरा कार्यालय है, उसी के पीछे गायत्री मंदिर की गोशाला है। अवसर मिलते ही वहाँ चला जाता हूँ। गैय्याओं को गो-ग्रास खिलाता हूँ। वो मुझे देख दौड़ी चली आती हैं। उनका स्नेह मुझे लज्जित करता है, मैं उसका सुपात्र नहीं। एक तृण भी मेरा नहीं है, भूस की एक अंजुरी नहीं।
मैं पारदर्शी हो जाता हूँ कि गैय्याओं मुझे नहीं उस प्रयोजन को देखो जो मुझको यहाँ लाता है। मैं तुम्हारा कल्याणमित्र हूँ, तुम मेरी प्राणसखी। और मेरी तुमसे अनुरक्ति- कदाचित्, एक पुण्य प्रसंग।
सहसा, श्रीनरेश मेहता की प्रार्थना मन में कौंधती है :
“हमें आलोको
हमारी रचनाओं को दूबों का शील दो
हमारी मृत चेतनाओं को
धेनु करो!”
साभार: सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)