मुस्लिम समाज के लोग अपनी उन्नति मदरसों , मज़हबी अफीम और दारुल उलूम में ही क्यों देखते हैं ?
-दयानंद पांडेय की कलम से-
Positive India:Dayanand Pandey:
कम से कम भारतीय संदर्भ में तो हम मुगलिया सल्तनत के इतिहास के 700 वर्ष को विध्वंस के इतिहास के रूप में जानते हैं । लोक कल्याण के नहीं । जो भी ऐतिहासिक इमारतें मुगल काल के आक्रमणकारी शासकों ने बनाई हैं अपने रहने और अपनी शानो-शौकत के लिए । लालकिला , ताजमहल , कुतुबमीनार या चारमीनार जैसी तमाम इमारतों का ऐतिहासिक महत्व तो है पर क्या यह जनता के भले के लिए बनाई गईं ? जनता के रहने के लिए बनाई गईं ? बाबरी मस्जिद के लिए जान लड़ाने वाले लोग कभी इस मुद्दे पर बात क्यों नहीं करते कि अयोध्या में राम जन्म-भूमि , मथुरा में कृष्ण जन्म-भूमि या काशी में काशी विश्वनाथ मंदिर से ही सट कर , दीवार से दीवार सटा कर ही मस्जिद बनाना इतना ज़रूरी क्यों था ? जजिया , खून खराबा तथा तलवार के बल पर जबरिया धर्म परिवर्तन के लिए इतिहास में मुगल काल को जाना जाता है । लूट-पाट और आक्रमणकारी छवि आज भी मिटी नहीं है , बावजूद तमाम ऐतिहासिक बेईमानियों और सो काल्ड सेक्यूलरिज्म के । यहां तक कि अकबर दुनिया का पहला सम्राज्यवादी शासक है । ब्रिटेन का साम्राज्यवाद तो बहुत बाद में आया । आज भी समूची दुनिया में मुसलमान अपने इस खून खराबे के इतिहास से बाहर निकलने को तैयार नहीं दीखते । ब्रिटिशर्स ने तो फिर भी बहुत से लोक कल्याणकारी कार्य किए जो आज भी अपनी पूरी बुलंदी के साथ दीखते हैं ।
आज इस सभ्य समाज में भी मुस्लिम समाज के लोग अपनी उन्नति मदरसों , मज़हबी अफीम और दारुल उलूम में ही देखते हैं । इस्लाम उन के लिए पहले है , मनुष्यता और देश भाड़ में जाए । एक से एक पढ़े-लिखे मुसलमान भी इस्लाम में ही पहली सांस ढूंढते हैं । एक मौलाना अंसार रज़ा बड़े फख्र से कहते हैं कि अगर मुसलमान होगा तो शरीयत का ही क़ानून मानेगा। ज्ञान-विज्ञान पढ़े मुस्लिम लोग भी अपनी पहचान मदरसों और दारुल उलूम में खोजते मिलते हैं तो यह देख कर बहुत हैरानी और तकलीफ होती है । सोचता हूं कि क्या यह पढ़े-लिखे लोग हैं ? आज भी आग पर चलना , देह पर छुरी मारना इन के लिए ज़रूरी है । यह अनायास नहीं है कि मुस्लिम समाज के स्वाभाविक नेता ओवैसी या आज़म खान जैसे जाहिल और जहरीले लोग हैं । यही रहेंगे । कांग्रेस , सपा , बसपा , लालू , ममता जैसे लोग इन को बिगाड़ कर पत्ते की तरह इन का वोट बटोरने के लिए हैं ही । सेक्यूलरिज्म का एक सो काल्ड कवच-कुंडल इन के पास है ही ।
ब्रिटिशर्स जिन को गांधी ने देश छोड़ने के लिए मज़बूर कर दिया , वह ब्रिटेन के संसद परिसर में गांधी की प्रतिमा बड़ी शान से लगाते हैं , रिचर्ड एटनबरो गांधी पर शानदार फ़िल्म बनाते हैं । अपने रुलर की छवि तोड़ कर , गुलाम बनाना भूल कर दोस्ताना व्यवहार बनाते हैं । और यहां हमारे मुस्लिम समाज के लोग आज भी एक आक्रमणकारी की निशानी बाबरी के लिए जान लड़ाने में अपना शौर्य समझते हैं । अपने आक्रमणकारी इतिहास में इन्हें इतना मजा आता है कि उस से निकलना अपनी तौहीन समझते हैं । वह आज भी अपने को वही खूखार रुलर समझने के नशे में चूर रहते हैं । गंगा-जमुनी तहज़ीब का नशीला फ़रेब अलग है । खैर , गंगा जमुनी तहज़ीब के बरक्स राहत इंदौरी का एक शेर मुलाहिजा कीजिए :
कब्रों की ज़मीनें दे कर हम मत बहलाइए
राजधानी दी थी , राजधानी चाहिए ।
साभार: दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)