यह मांसाहार बनाम शाकाहार की नहीं, जीवहत्या बनाम जीवदया की बहस है!
-सुशोभित की कलम से-
Positive India:Sushobhit:
जब अदालत में मुक़दमा चलाया जाता है तो पहले एक चार्जशीट बनाई जाती है। उसमें अपराध की प्रकृति के बारे में ब्योरेवार विवरण होता है। उसी से अभियोजन की तर्कणा बनती है।
जब अस्पताल में इलाज किया जाता है तो पहले जांचें कराई जाती हैं। उनकी रिपोर्ट में बीमारी की प्रकृति के बारे में ब्योरेवार विवरण होता है। उसी से उपचार की तर्कणा बनती है।
इसी तरह, जब हम किसी विमर्श में शरीक होते हैं तो हमारे लिए भी यह तय करना ज़रूरी होता है कि हम किस बारे में बहस कर रहे हैं। बहस की भी एक चार्जशीट होती है, जांच रिपोर्ट होती है, उसमें बहस के बिंदुओं का निर्धारण किया जाता है। पहले बहस के बिंदु तय होते हैं, उसके बाद बहस की तर्कणा निर्मित होती है।
वो कहते हैं- यह मांसाहार बनाम शाकाहार की बहस है।
मैं कहता हूं, यह एक ग़लत चार्जशीट है। इसकी बुनियाद पर कभी भी बहस सही डगर पर नहीं चल सकती है। अलबत्ता वो चाहते तो यही हैं कि बहस को बेपटरी कर दिया जाए।
यह मांसाहार बनाम शाकाहार की नहीं, जीवहत्या बनाम जीवदया की बहस है!
और मैं आपसे कहता हूं कि कोई भी यह कहकर बहस में नहीं उतर सकेगा कि मैं जीवहत्या को जीवदया से अधिक महत्व देता हूं और इसके बावजूद वह अपने नैतिक आधार की रक्षा कर सके। और वो यह बात जानता है कि नैतिक आधार पर उसका पक्ष कमज़ोर है।
इसलिए वह ग़लत चार्जशीट सामने रखता है और ग़लत जांच रिपोर्ट देता है।
वो कहता है- ये मेरी कल्चर है, ये मेरा लोकतांत्रिक अधिकार है, यह मेरी परम्परा है, यह मेरी आदत है, यह मेरा चयन है, यह मेरा भोजन है।
वो ये कभी नहीं कहता कि इसमें हत्या है और मैं हत्या के समर्थन में हूं, इसमें क्रूरता है और मैं क्रूरता का पक्षधर हूं, इसमें अन्याय और शोषण है और मैं अन्याय और शोषण की रीति का पोषण करता हूं, इसमें दमन है और मैं वंचितों और दुर्बलों को कुचल डालने की विचारधारा से सहमत हूं, इसमें हिंसा है और मैं हिंसा के हक़ में हूं।
वो बात को घुमाता है, क्योंकि वो डरता है। क्योंकि वो जानता है। उसकी आत्मा उसको भीतर से कचोटती है। अंतरात्मा की आवाज़ को दबाने के लिए वो हज़ार तर्क देता है- कभी भूगोल का, कभी इतिहास का, कभी राजनीति का, कभी अर्थतंत्र का।
पर वो भूलकर भी हिंसा और क्रूरता और अन्याय और शोषण की बात नहीं करता। अलबत्ता वो दिनभर हिंसा, क्रूरता, अन्याय और शोषण पर ही प्रवचन देता फिरता है।
गांधी और मार्क्स का भक्त होकर भी हिंसा और बलिप्रथा की परम्परा का हवाला देने की अवसरवादी प्रतिभा हर किसी में नहीं होती!
बहस को सही बिंदु पर लेकर आओ और फिर देखो तुम कभी जीत नहीं सकोगे!
और अगर तुम “हां, हम क्रूरता के पक्षधर हैं!” का तर्क दोगे, तो स्वत: ही सामाजिक और प्राकृतिक न्याय के उन समस्त सिद्धांतों का खण्डन कर दोगे, जिसकी अन्यत्र बड़ी दुहाई देते फिरते हो!
साभार:सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार है)