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आदिपुरुष फ़िल्म के निर्माताओं ने कुछ अलग हट कर दिखाने की मूर्खता क्यो की ?

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
अपनी किसी धार्मिक कथा पर फ़िल्म या सीरियल बनाने के लिए सबसे आवश्यक वस्तु क्या है? पैसा? स्टार अभिनेता? तकनीक? बढ़िया डायलॉग? यह सब भी आवश्यक तत्व हैं, पर पहले नहीं है। सबसे पहले आवश्यकता होती है धर्म और अपनी पौराणिक कथा के प्रति अगाध श्रद्धा की! पूर्ण समर्पण की! पूर्ण विश्वास की।
यदि श्रद्धा हो तो पुरानी तकनीक के सहारे भी महाभारत बना कर बी आर चोपड़ा अमर हो गए, पर उससे हजार गुना बजट और तकनीक लेकर भी एकता कपूर एक भद्दा सीरियल ही बना सकी। तो क्या अंतर था दोनों में? अंतर केवल श्रद्धा का था, समर्पण और सम्मान का था।
पौराणिक कथाएं एक्सपेरिमेंट की चीज नहीं होतीं। वहां आप कुछ अलग हट कर दिखाने की मूर्खता नहीं कर सकते… आपको याद रखना होगा कि धार्मिक कथाएं आस्था का विषय होती हैं, मनोरंजन का नहीं। यदि मनोरंजन के लिए निर्माण करना है तो हजारों विषय पड़े हैं, उनपर काम किया जा सकता है। यदि धर्म के लिए ही कार्य करना है तो असँख्य तात्कालिक सामाजिक मुद्दे हैं जिनपर सिनेमा बना कर लोगों को जागरूक किया जा सकता है, जैसे कश्मीर फाइल और केरल स्टोरी में किया गया। पर ऐसा धार्मिक कथाओं के साथ नहीं किया जाना चाहिये।
तनिक सोचिये तो। हमारे समाज में युग युगांतर से राम कथा क्यों कही सुनी जाती है? क्या केवल इसलिए कि अयोध्या के एक राजकुमार ने सुदूर लंका के बलशाली शासक को मार दिया था? नहीं! राम इसलिए याद नहीं किये जाते कि वे रावण हन्ता थे, राम इसलिए याद रखे जाते हैं कि वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे। उनपर जब भी बात हो तो सबसे अधिक मर्यादा का ध्यान रखा जाना चाहिये।
एक सामान्य बच्चा बनवास जाते राम से सीखता है कि अपने माता-पिता के अतार्किक इच्छाओं का भी सम्मान किया जाना चाहिये। वन में भरत से लिपट कर रोते रामजी से सीखता है कि अपने अनुजों और सगे सम्बन्धियों के प्रति कितना समर्पण होना चाहिये। सीता हरण के बाद पत्नी के लिए बिलखते राम से सीखता है कि अपनी जीवन संगिनी के प्रति कितनी निष्ठा, समर्पण और प्रेम होना चाहिये। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी कहते राम से सीखता है कि अपनी मातृभूमि के प्रति कैसा समर्पण होना चाहिये। रामजी का पूरा जीवन युग युगांतर तक आमजनमानस के लिए मर्यादित व्यवहार की परिभाषा गढ़ने में गया है। उनपर जब भी फ़िल्म बने तो इन बिंदुओं पर अधिक बात होनी चाहिये।
धर्मिक कथाएं किसी फिल्मी कहानीकार की गढ़ी हुई कहानी नहीं हैं कि विलेन का मतलब गब्बर और हीरो का मतलब पियक्कड़ बीरू हो। वहाँ कंस इसलिए आये ताकि समाज को बताया जाय कि उचित संस्कार नहीं मिलने पर उग्रसेन जैसे धर्मात्मा का पुत्र भी पापी कंस हो सकता है, और हिरण्यकश्यप इसलिए आये ताकि समाज याद रखे कि एक घोर पापी के बेटे को भी संस्कार मिले तो वह प्रह्लाद हो सकता है। रावण बस इसलिए महत्वपूर्ण है कि हमें याद रहे कि संस्कार न मिले तो पुलस्त्य कुल के बच्चे भी राक्षस हो सकते हैं। और यह भी याद रहे कि अधर्म कितना भी शक्तिशाली हो, उसका अंत हो ही जाना है।
आदिपुरुष फ़िल्म के निर्माताओं ने केवल इस बात का ध्यान रखा कि सिनेमा हॉल में ताली कैसे बजवाई जा सकती है। वह इसी पर ठहर गए और सारा गुड़ गोबर हो गया। यह हुआ क्योंकि केंद्र में श्रद्धा नहीं थी, ब्यवसाय था। श्रद्धा होती तो न नवाब साहब होते, न कीर्ति सेनन होतीं।
एक बात और! राष्ट्रवाद के बहार में अपना हित साधने निकले ब्यापारियों को पहचानना आवश्यक हो गया है अब! ध्यान रखा जाय… बाकी यदि विशुद्ध मनोरंजन की बात हो तो गदर 2 आ रही है…😊

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साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार है)
गोपालगंज, बिहार।

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