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आज की पीढी ओलंपिक पदक विजेताओं की क़द्र क्यो नही कर रही है ?

-राजकमल गोस्वामी की कलम से-

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Positive India क में पदक विजेताओं को आज की क्रिकेट की दीवानी जनता बहुत हल्के से लेती है । हमसे पूछिए जब हमने होश संभाला तो पहला ओलंपिक पदक हॉकी में आया था वह भी रजत रोम ओलंपिक में । उसी ओलंपिक में मिल्खा सिंह विश्व रिकॉर्ड तोड़ कर भी चौथे स्थान पर रह गए फिर भी लीजेंड बन गए ।

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हम बेसब्री से ओलंपिक का इंतज़ार करते थे और भारत के एक एक खिलाड़ी का नाम हमें याद होता था चाहे वह किसी खेल के प्रतिभागी हों । १९६४ में टोक्यो में हॉकी गोल्ड हमारे लिए आज भी हॉकी में ख़ुशी का अंतिम अवसर था जब मोहिन्दर लाल ने विजयी गोल दाग़ा था । उसके बाद दूसरा अवसर कुआलालमपुर विश्व कप में मिला जब फ़ाइनल में भारत ने पाकिस्तान को हरा कर कप अपने नाम किया । मॉस्को ओलंपिक का हॉकी गोल्ड अधूरा था कि सारे पश्चिम जगत ने उसका बॉयकॉट कर रखा था ।

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व्यक्तिगत स्पर्धा में पदक के लिए हमें लंबा इंतज़ार करना पड़ा । १९५२ में केटी जाधव के कुश्ती कांस्य के बाद अगला मेडल १९९६ में लिएंडर पेस ने टेनिस में दिलाया तो सारा देश ख़ुशी से उछल पड़ा । चौवालीस साल बाद यह पदक आया था । इस बीच हम फ़ाइनल में पहुँचने वाले हर खिलाड़ी पर नज़र गड़ाए रहते थे । सन ६४ में गुरबचन सिंह रंधावा ११० मीटर बाधा दौड़ में सातवें स्थान पर रहे । बीकानेर के महाराजा कर्णी सिंह स्कीट शूटिंग में लगातार कई ओलंपिकों में भाग लेते रहे । श्री राम सिंह शाइनी विल्सन पीटी ऊषा जो ओलंपिक फ़ाइनल में पहुँचते थे हमारे हीरो हो जाते थे ।

१९९६ में लिएंडर पेस ने पदकों का सूखा खतम किया तब से हर ओलंपिक में भारत को पदक मिल रहे हैं । मिल्खा सिंह का सपना था कि उनके जीवनकाल में किसी को ट्रैक एंड फ़ील्ड में गोल्ड मिल जाये । वे यह हसरत अपने साथ लिए चले गये । पिछले ओलंपिक में नीरज चोपड़ा ने भाला फेंक में गोल्ड जीत कर मिल्खा सिंह की आत्मा को शांति प्रदान की होगी ।

मेरे पिताजी हमेशा फसल पर साल भर की खपत का गेहूँ कोठार में भरवा लेते थे । हम लोग टोकते थे तो वह कहते थे कि तुम लोगों ने १९४३ का बंगाल का अकाल नहीं देखा है । अकाल में वही राजा होता जिसके पास अनाज होता है ।

आज की पीढ़ी ने ओलंपिक पदकों का सूखा देखा नहीं है इसलिए पदक विजेताओं की क़द्र भी नहीं है ।

साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)

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