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यह पुरुष प्रधान समाज स्त्रियों के लिए तेज़ाब की नदी है

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India:Dayanand Pandey:
यह महिला दिवस ,यह हिंदी दिवस सब पाखंड है । देश और समाज में तो हिंदी , स्त्री और किसान तीनों की दशा और दुर्दशा एक जैसी ही है । यह तिरस्कृत लोग हैं । महिलाओं को आधी दुनिया कहा ज़रूर जाता है पर सच यह है कि यह आधी दुनिया नहीं , बहिष्कृत दुनिया है । यह समानता , यह बराबरी की बात कोरी लफ़्फ़ाज़ी है । यह वह समाज है जो स्त्रियों को घर और स्कूल तक में एक शौचालय भी नहीं दे सका है । औरतों को इस पृथ्वी पर जन्म लेने का अधिकार नहीं दे सका है । पुरुषों की तिजोरी के बूते खाई अघाई स्त्रियों की बात अलग है , यह उन का ही महिला दिवस है। लेकिन कितनी स्त्रियां हैं जो खुल कर , ख़ुशी से कह सकती हैं , कि हां , वह पूरी तरह आज़ाद हैं । व्यक्तिगत , सामाजिक , पारिवारिक , वैचारिक और आर्थिक रुप से आज़ाद हैं ! सच यह है कि यह पुरुष प्रधान समाज स्त्रियों के लिए तेज़ाब की नदी है । और इस नदी में डूब कर ही उसे जीना है । अगर निर्मम और नंगा हो कर तुलना करनी ही हो स्त्री और पुरुष की तो कहूंगा स्त्री सीता है , पुरुष रावण है । एक शेर के मिसरे में जो बात पूरी करूं तो जितने रावण मिले राम के वेश में ।

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और फिर राम भी कौन कहीं सीता के बड़े हितैषी थे ?

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अब कुछ स्त्रियां महिला दिवस मना कर ख़ुश हैं तो यह ख़ुशी उन्हें ज़रूर मुबारक ! और जो स्त्रियां पुरुषों के कंधे पर बैठ कर , पुरुषों की तिजोरी के दम पर अपने को चैम्पियन माने बैठी हैं उन को यह उन की शान और रफ़्तार भी मुबारक ! स्त्री की सब से बड़ी ताक़त है उस का मातृत्व । और हमारे इस समाज ने स्त्री के मातृत्व की आज़ादी तक को छीन लिया है । आप स्त्री की आज़ादी का सिर्फ़ इसी एक बात से अंदाज़ा लगा लीजिए कि स्त्री के पास अपनी कोख के विकल्प की आज़ादी भी इस बेरहम समाज ने छीन लिया है । यह कृतघ्न समाज बेटी नहीं , बेटा की फरमाइश और आज़माईश में नाक से ऊपर तक डूबा पड़ा है । बेतहाशा भ्रूण हत्याओं का कीर्तिमान क्या अनायास रच दिया गया है ? बेटी के पिता को इस समाज ने दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया है ।

बेटी को आप बेटों के बराबर पढ़ा-लिखा सकते ज़रूर हैं । हर एक बात में बराबर खड़ा कर सकते हैं लेकिन जब बेटी की शादी करने की बात आएगी तो यह सारी बराबरी धुएं की तरह उड़ जाती है । कोहरा बन कर सामने उपस्थित हो जाती है । दहेज का रावण आ कर खड़ा हो जाता है । बात करोड़ो की होने लगती है । विवाह कर के स्त्री गुलाम बन जाती है । नतीज़ा ? भ्रूड़ हत्या शुरू हो जाती है । स्त्री-पुरुष अनुपात बिगड़ जाता है । स्लोगन बनने लगते हैं , बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ ! यह दोनों बात किसी समाज में एक साथ कैसे चल सकती हैं ? स्त्री की आज़ादी की बात कर महिला दिवस मनाओ और नारा लगाओ बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ ! यह तो वैसे ही है जैसे सरकार में एक साथ दो विभाग हैं , एक मद्य निषेध विभाग जो लोगों से शराब न पीने की अपील करता है , जब की दूसरा है आबकारी विभाग जो लोगों से शराब खरीदने की बात करता है ।

फ़ोटो : गौतम चटर्जी
तो औरतों के साथ यह दोगलापन खत्म करने के लिए कोई आकाश से उतर कर नहीं आने वाला है । स्त्रियों को अपना अस्तित्व , अपनी आज़ादी , अपना स्वाभिमान खुद तय करना होगा । स्त्री अभी भी पुरुष के बिना पतवार की नाव समझी जाती है । यह देवी रूप आदि भी बेमतलब का दिखावा है । यत्र नार्यस्तु पूजयंते रमंते तत्र देवताः ! आदि भी ढकोसला है , बहुत बड़ा पाखंड है । एक तल्ख सच यह है कि आज के दिन स्त्री ही एकजुट नहीं रह गई है । स्त्री आपस में ही लड़ रही है । मर मिट रही है । जातियों के खाने खोमचे में भी वह बेतरह बंटी हुई है । स्त्री जब तक अपने तौर पर समुच्य स्त्री बन कर नहीं खड़ी होगी , वह हारती रहेगी । पिटती रहेगी । हर मोर्चे पर । मजाज लखनवी ठीक ही लिख गए हैं कि

तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।

लेकिन मजाज को यह लिखे भी अरसा हो गया । औरतें अभी तक संसद तक में आरक्षण खातिर कटोरा लिए खड़ी हैं । महिला सांसदों की संख्या लगातार कम होती जा रही है । दिल्ली में निर्भया तो हरियाणा में मरुथल जैसी घटनाएं आम हो गई हैं । औरतों की संख्या घट रही है , बलात्कारियों की संख्या बढ़ रही है । हम यह कौन सा समाज रच रहे हैं अपने लिए ?

औरतों की स्थिति समाज में बहुत ही शर्मनाक है । यह वही समाज है जो स्त्रियों को घर और स्कूल तक में एक शौचालय भी नहीं दे सका है । औरतों को इस पृथ्वी पर जन्म लेने का अधिकार नहीं दे सका है । हां औरतों को संबोधित बेशुमार गालियों का नित नया शब्दकोश ज़रूर तैयार करता दीखता है । झगड़ा किसी भी को निपटाना हो औरतों को बेईज्ज़त कर के ही पूरा होता है । सीता , अहिल्या , गांधारी , द्रौपदी से लगायत आज तक यह परंपरा जारी है । लगता नहीं है कि यह परंपरा कभी टूटेगी भी । बल्कि और मज़बूत होती जाती दिखती है । यह खाप पंचायतों वाला देश और समाज है । तिहरे तलाक़ और पुरुषों को चार बीवियों की आज़ादी देने वाला देश और समाज है । मंदिर और मस्जिद में औरतों के जाने पर पाबंदी लगाने वाला देश है , समाज है । अब ऐसे घुटन भरे माहौल में आप जी कर भी मुझ से महिला दिवस की बधाई चाहती हैं ? यह तो हद्द है ! माफ़ कीजिए , मैं नहीं दूंगा बधाई । जिस दिन इन चीज़ों से , इन बाधाओं से अपने दम पर पार पा लेंगी आप लोग , यकीन मानिए मैं पहला आदमी होऊंगा आप सब को बधाई देने वाला । अब ज़्यादा कहूं , औरतों के हालात पर अपनी ही दो ग़ज़लें आप को यहां पढ़वा रहा हूं :

ग़ज़ल – 1

उन के पास तोप तलवार टैंक है ऐटम बम भी ले कर चलते हैं
पर इतने कायर हैं कि मां के गर्भ में उपस्थित लड़की से डरते हैं

सारी सुविधाओं से लैस बात-बेबात गोली बंदूक़ चलाते रहते हैं
लेकिन जिगरा देखिए कि नौकरी करने वाली लड़की से डरते हैं

उस के पास किताब है स्कूल जाती है मोबाइल कंप्यूटर चलाती है
अजब लोग हैं इस शहर के जो एक छोटी सी लड़की से डरते हैं

अपने गंवारपन और जहालत से निकलना मंज़ूर नहीं है हरगिज
उन को तो हिजाब और बुरक़ा प्यारा है पढ़ी-लिखी लड़की से डरते हैं

मंदिर में काली दुर्गा बना कर पूजने में ऐतराज नहीं है उन को
लेकिन घर समाज में औरत को बराबरी से बैठाने में डरते हैं

वह चाहते हैं मोम की गुड़िया जो उन के पिघलाने से पिघल जाए
उन के जमाये से जम जाए अपनी सत्ता के ढह जाने से डरते हैं

सोचे नहीं बिना ना नुकुर किए चूल्हे की आग में होम हो जाए
उन की ग़ुलामी से कहीं इंकार न कर दे इस बात से बहुत डरते हैं

मायके से आए तो ख़ूब सारा दहेज़ लाए जुबान उस की सिली रहे
स्वेटर बुने मटर छिले सच न बोल दे मुसलसल इस बात से डरते हैं

ग़ज़ल – 2

बेटी का पिता होना आदमी को राजा बना देता है
शादी खोजने निकलिए तो समाज बाजा बजा देता है

राजा बहुत हुए दुनिया में पर बेटी का पिता वह घायल राजा है
जिस के मुकुट पर हर कोई सवालों का पत्थर उछाल देता है

हल कोई नहीं देता सब सवाल करते हैं जैसे प्रहार करते हैं
बेटी का बाप है आख़िर हर किसी को सारा हिसाब देता है

लड़के का बाप तो पैदाईशी ख़ुदा है लड़की के पिता को
यह समाज सर्कस की एक चलती फिरती लाश बना देता है

लड़का चाहता है विश्व सुंदरी नयन नक्श तीखे नौकरी वाली
मां चाहती है घर की नौकरानी बेटे का बाप बाज़ार सजा देता है

नीलाम घर सजा हुआ है दुल्हों का फरमाईशों की चादर ओढ़े
कौन कितनी ऊंची बोली लगा सकता है वह अंदाज़ा लगा लेता है

विकास समानता बराबरी क़ानून ढकोसला है समाज दोगला है
लड़कियां कम हैं अनुपात में पर दाम लड़कों का बढ़ा देता है

पढ़ी लिखी हैं सुंदर हैं नौकरी वाली भी हुनर और सलीक़े से भरपूर
जहालत का मारा सड़ा समाज उन्हें औरत होने की सज़ा देता है

उम्र बढ़ाती हुई बेटियां ख़ामोश हैं , पिता सिर झुकाए बैठे हैं
बेरहम वक्त उन के सुलगते अरमानों का ताजिया उठा देता है

बात करते हुए वह आकाश देखता है , बोलता कम टटोलता ज़्यादा है
लड़के का बाप है उस की ऐंठ अकड़ और अहंकार यह बता देता है

मसाला खाते शराब पीते भईया यहां वहां मुंह मारने में टॉपर हैं
बेटे का बाप उसे हुंडी समझता है शादी के बाज़ार में भजा देता है

सिर के बाल भी ग़ायब चेहरे पर अय्याशियों के भाव अटखेलियां करते
आंख से दारु महकती है बाप का जलवा उसे मंहगा दूल्हा बना देता है

जितने ऐब हैं ज़माने में सभी से सुसज्जित है हर कोई जानता समझता
लेकिन बेटे का बाप अंधा होता है उसे सारे गुणों की खान बता देता है

पंडित है , लग्न लिस्ट तमाम चोंचले भी बता तू कहां-कहां फिट होता है
आप को नहीं मालूम कोई बात नहीं इवेंट मैनेजर यह सब बता देता है

संस्कार और रिश्ता नहीं अब तड़क भड़क है इवेंट का तमाशा है
शादी के रिश्ते को यही इवेंट करोड़ों अरबों का व्यापार बना देता है

आदमी किश्तों में सांस लेता है टूटता बिखरता है और मर जाता है
यह शादी नहीं फांसी की रस्म है जालिम समाज हर कदम बता देता है

शेष फिर कभी ।

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार है)

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