भारत के क्रांतिकारी सपूतों के साथ गद्दारी करने वालों को क्या आप जानते हैं?
- राजकमल गोस्वामी की कलम से-
Positive India:Rajkamal Goswami:
23 मार्च 1931 को भगत सिंह को जल्लाद काला मसीह ने फाँसी दी बहुत बाद में उसके बेटे तारा मसीह ने सन 79 में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फाँसी दी । जल्लादों को कोई तरक़्क़ी नहीं मिलती ।
मगर एक बड़ा मोर्चा फ़तह करने के बाद अंग्रेजों ने इनामो इकराम का सिलसिला शुरू किया । सरकारी गवाह बन जाने वाले भगत सिंह के ग़द्दार साथियों को ख़ूब नवाज़ा गया । हंसराज वोहरा ने नक़द इनाम लेने से मना कर दिया तो पंजाब सरकार ने उसे आगे की पढ़ाई के लिए लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स भेज दिया बाद में लंदन यूनिवर्सिटी से जर्नलिज़्म की डिग्री लेकर पहले वह लाहौर में पत्रकारिता करता रहा और बाद में वॉशिंगटन चला गया जहाँ से टाइम्स ऑफ़ इंडिया और डकन क्रॉनिकल्स के लिए पत्रकारिता की और १९८५ में वहीं मर गया । दूसरे ग़द्दार जिसे अदालत में एक क्रांतिकारी ने निशाना साध के चप्पल मारी थी जयगोपाल को २००००₹ नक़द दिए गये । तीसरे और चौथे ग़द्दार फणींद्र नाथ घोष और मनमोहन बनर्जी को उनके गृह जनपद चंपारन में पचास पचास एकड़ ज़मीन दी गई ।
जेल सुपरिंटेंडेंट पीडी चोपड़ा को फाँसी के दो दिन बाद प्रमोट करके डीआईजी प्रिजन बना दिया गया । ख़ान साहब मोहम्मद अकबर खान डिप्टी सुपरिंटेंडेंट फाँसी के बाद फूट फूट कर रो पड़े थे उन्हें सस्पेंड कर दिया गया, ख़ान साहब का ख़िताब छीन लिया गया और बाद में पदावनत कर दिया गया ।
लाहौर षड्यंत्र के विवेचना अधिकारी ख़ानबहादुर अब्दुल अज़ीज़ को आउट ऑफ़ टर्न प्रमोशन मिला और वे ब्रिटिश राज में पहले अफ़सर हुए जो हेड कांस्टेबल से भर्ती हुए और डीआईजी से रिटायर हुए । उनके साहिबज़ादे मसूद अज़ीज़ को सीधे डिप्टी एसपी में नॉमिनेट कर लिया गया । ख़ान बहादुर को लॉयलपुर में पचास एकड़ ज़मीन भी दी गई ।
मुक़दमे की तफ़तीश से लेकर लाशों को ठिकाने लगाने वाले हर शख़्स को खुले दिल से उपकृत किया गया । इतना कि किसी के दिल में कोई मलाल न रह जाए । और सरकार के साथ वे वफ़ादार बने रहें और सोसाइटी में एक नज़ीर बन सकें कि सरकार के साथ वफ़ादारी के फ़ायदे ही फ़ायदे हैं ।
क़ायदे से रहोगे तो फ़ायदे में रहोगे । नतीजा भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव की फाँसी के बाद क्रांतिकारी आंदोलन की भारत में कमर टूट गई । इसके बाद सिर्फ़ एक महत्वपूर्ण क्रांतिकारी घटना हुई जब १९४० में ऊधम सिंह ने लंदन में माइकेल ओ डायर को गोली मारी ।
यदि हम क्रांतिकारियों के यशोगान के मुक़ाबले ग़द्दारों के लिए शर्मिंदगी महसूस करते और उनका समाज में सिर उठा कर चलना मुश्किल कर देते तो देश का ज़्यादा भला होता । भगत सिंह के ग़द्दारों में सिर्फ़ फणींद्रनाथ घोष से बैकुंठ शुक्ला ने बदला ले पाया ।
चंद्रशेखर आज़ाद को आज तिवारी कह कर गौरवान्वित होने वाले भी जान लें कि उनकी अल्फ्रेड पार्क में होने की पुलिस को मुख़बिरी करने वाला भी वीरभद्र तिवारी ही था ।
लोग गाँधी को कितना भी उलाहना दें मुल्क में इतने ग़द्दारों के रहते कोई क्रांतिकारी आंदोलन सफल होना संभव ही न था । रास्ता गाँधी का ही सही था ।
साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)