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कहां-कहां से तुलसी को मिटाएंगे ?

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India:Dayanand Pandey:
एक समय था कि रवींद्रनाथ ठाकुर रचित राष्ट्रगान जन-गण-मन-गण अधिनायक जय हो में से कुछ मूर्खों ने कुछ हटाने की मांग कर डाली थी। ख़ास कर पंजाब सिंधु गुजरात मराठा में पंक्ति से सिंधु को हटाने की मांग हुई। तर्क दिया गया कि जब सिंधु नदी और सिंध भारत में पाकिस्तान बंटवारे के बाद भारत में नहीं रहे तो राष्ट्रगान में यह कैसे रह सकते हैं। अंतत: विद्वानों की राय आई कि किसी रचना में छेड़छाड़ ठीक नहीं। सरकार भी चुप ही रही। कोई बदलाव आज तक नहीं हुआ। न आगे कोई यह हिमाकत करेगा। यहां तक कि पाकिस्तान भी चुप ही रहा। कभी नहीं कहा कि जब सिंधु नदी और सिंध पाकिस्तान में है तो भारत के राष्ट्रगान में कैसे आ रहा है , गाया जा रहा है। कभी नहीं कहा। संकेतों में भी नहीं कहा।

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वैसे भी रचना जब जनता के बीच आ जाए तो रचनाकार को भी यह अधिकार नहीं रह जाता कि वह रचना को संशोधित या संपादित कर पेश करे। मेरा एक उपन्यास है अपने-अपने युद्ध। जब छप कर आया तो बड़ी तारीफ़ हुई। ख़ास कर न्यायपालिका प्रसंग की बहुत तारीफ़ हुई। बताया गया कि बहुत पावरफुल उपन्यास है। सब ने एक सुर से यह बात कही। पर इस अपने-अपने युद्ध उपन्यास पर अश्लीलता के आरोप जब कुछ ज़्यादा ही लग गए , लोग कहने लगे कि यह देह प्रसंग न होते तो यह माइलस्टोन उपन्यास होता। जब बहुत हो गया तो एक बार बातचीत में रवींद्र कालिया से मैं ने कहा कि अगर ऐसा है तो अगला संस्करण संपादित कर यह देह प्रसंग हटा देता हूं। रवींद्र कालिया ने समझाया मुझे कि ऐसा भूल कर मत कीजिएगा। क्यों कि रचना जब प्रकाशित हो गई तो फिर उस का पहला प्रभाव ही लोग याद करते हैं। बदलना या कुछ हटाना, जोड़ना ठीक नहीं होगा। इसी उपन्यास पर कंटेम्प्ट आफ कोर्ट जब हुआ हाईकोर्ट में तो कोई तीन-चार बरस चले मुकदमे का निपटारा करते हुए चीफ जस्टिस ने अपने आदेश में मुझ से कहा कि आइंदा ऐसा लेखन नहीं करें और आगे से इस उपन्यास को संशोधित कर के छापें। इस आदेश के बाद भी अपने-अपने युद्ध के कई सारे संस्करण छपे। पर उस में कोई संशोधन नहीं किया। हालां कि मारे उत्साह में कमलेश्वर ने तब मुझ से कहा था कि ऐसा कीजिए कि फिर तो उस न्यायपालिका प्रसंग को संशोधित कर और कड़ा कर दीजिए। कड़ा करने का जोश मुझ में भी बहुत आया। पर प्रकाशक ने तब हाथ जोड़ लिया। ऐसा किसी रचनाकार को करना भी नहीं चाहिए। मैं ने भी नहीं किया।

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क्यों कि अगर ऐसा हो जाए तो दुनिया का सारा साहित्य समाप्त हो जाए। हरदम रचनाकार या कोई और कुछ न कुछ बदलता ही रहे। अर्थ का अनर्थ होता रहे। रचना कोई विकिपीडिया नहीं है , जो हर कोई उस में जो चाहे जोड़ता-घटाता रहे। रचना कोई गरीब की लुगाई नहीं है कि हर कोई उसे भौजाई कहता फिरे।

राजस्थान में जब वसुंधरा राजे सिंधिया मुख्यमंत्री बनीं तो एक पाप उन्हों ने यह किया कि राजस्थान के पाठ्यक्रम में शामिल सुभद्रा कुमारी चौहान की जग प्रसिद्ध रचना खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी से निम्नांकित पंक्तियां हटवा दी थीं।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,

घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,

यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

क्यों कि इस में वर्णित

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी

से सिंधिया परिवार की हेठी हो रही थी। बहुत बवाल हुआ। अंतत: वसुंधरा राजे को झुकना पड़ा। कविता को पूरा-पूरा पाठ्यक्रम में वापस लेना पड़ा।

अब इन दिनों कुछ मतिमंद तुलसी की रामचरित मानस को संपादित कुछ चौपाइयां हटाने की मांग कर जहर उगल और बो रहे हैं। इतिहास गवाह है कि राम और तुलसी से लड़ कर हर कोई नष्ट हुआ है। अब इन की बारी है।

तुलसी पर एक प्रसंग याद आ गया है। तब के समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे विष्णुकांत शास्त्री। लखनऊ की एक संस्था ने तुलसी जयंती के एक कार्यक्रम में उन्हें बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया। ऐन कार्यक्रम के दिन विष्णुकांत शास्त्री को बहुत तेज़ बुखार हो गया। उन्हों ने अपने प्रमुख सचिव शंभुनाथ को कार्यक्रम स्थल पर इस संदेश के साथ भेजा कि तबीयत बिगड़ जाने के कारण कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पा रहा हूं। शंभुनाथ जी ने वह संदेश पत्र कार्यक्रम स्थल पर समय से पहले पहुंच कर आयोजकों को दे दिया। आयोजकों ने शंभूनाथ जी से निवेदन किया कि ऐसे में आप ही मुख्य अतिथि का आग्रह स्वीकार कर लें। शंभुनाथ जी ने हाथ जोड़ लिया। कहा कि बिना आचार्य जी की अनुमति के यह संभव नहीं है।

आचार्य जी मतलब विष्णुकांत शास्त्री। आयोजकों ने उन से कहा कि फ़ोन कर आचार्य जी से अनुमति ले लीजिए। शंभुनाथ जी ने फिर हाथ जोड़ कर कहा कि फ़ोन पर नहीं , आचार्य जी से मिल कर ही अनुमति लेना मेरे लिए ठीक रहेगा। कार्यक्रम का समय हो गया था। खैर , आयोजकों ने शंभुनाथ जी की यह बात मान ली। शंभुनाथ जी राज भवन गए और आचार्य जी से अनुमति ले कर लौटे। बताया कि आचार्य जी ने अनुमति दे दी है। वह कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बने। जब उन का संबोधन शुरु हुआ तो उन का पहला ही वाक्य था कि तुलसी जयंती मनाने की क्या ज़रुरत है।

इतने पर ही उपस्थित श्रोताओं में खुसुर-फुसुर शुरु हो गई। कि अरे यह तो दलित है। इसे मुख्य अतिथि बनाने की क्या ज़रुरत थी। सब गड़बड़ कर दिया। पर जब आगे शंभुनाथ जी ने कहा कि तुलसी जयंती तो पूरी दुनिया में हर क्षण मनाई जाती है। हर समय कहीं न कहीं तुलसी की रामायण का पाठ होता रहता है। इस तरह तुलसी जयंती रोज ही क्षण-क्षण मनाती रहती है। तुलसी तो पूरी दुनिया में व्याप्त हैं। देश-विदेश में तमाम घर में तुलसी कृत रामायण रहती है। पाठ होता रहता है। तुलसी जयंती मनती रहती है। इस के बाद वही लोग जो दलित का पहाड़ा पढ़ रहे थे , तालियां बरसाने लगे।

फिर तो शंभुनाथ जी ने जो अमृत गंगा उस दिन अपने व्याख्यान में बहाई , मेरे मन में आज तक बहती रहती है। तुलसी और रामायण के ऐसे-ऐसे दुर्लभ प्रसंग , तमाम उद्धरण और कथ्य के साथ प्रस्तुत किए कि मन अयोध्या बन गया। राममय बन गया। उस दिन पता चला कि शंभुनाथ जी सिर्फ़ आई ए एस अफसर ही नहीं , साहित्य के गंभीर अध्येता भी हैं। दिनकर पर उन की पी एच डी है। फिर तो शंभुनाथ जी के कई व्याख्यान समय-समय पर सुने हैं। हर बार अमृतमय कर देते हैं वह। पर तुलसी जयंती पर उस बार दिया गया उन का व्याख्यान आज भी श्रेष्ठतम है। उमाकांत मालवीय का गीत याद आता है :

हम तो हैं लक्ष्मण की मूर्छा

बैद सुखेन तुम्हारे खाते ।

तुमको राम अमृत दे सारा

ज़हर कुनैन हमारे खाते ।

भारत भाग्य विधाता गाने वाले लोग यह जानते हैं। पर जातीय राजनीति की अलाव तापने वाले जाने कब यह जानेंगे। जाने कब जानेंगे कि तुलसी दुनिया के सब से बड़े कवि हैं। सब से लोकप्रिय और ताकतवर कवि हैं। उन का कोई सानी नहीं है। न होगा। संस्कृत के प्रकांड पंडित होते हुए भी तुलसी ने अवधी में रामचरित मानस लिखी। साधारण बोली में लिखी। इसी लिए वह जन कवि बने। इतने लोकप्रिय कवि बने। बाल्मीकि और कालिदास जैसे कई बड़े कवियों ने भी रामायण लिखी। बहुत शानदार लिखी है। लेकिन जन-जन में तो तुलसी की ही रामायण उपस्थित है। एक मेहनतकश मज़दूर भी तुलसी की रामायण समझता है और गाता है। एक दार्शनिक और वैज्ञानिक भी तुलसी की रामायण समझता है। तमाम रामकथा वाचक , विद्वान भी तुलसी की रामायण को पढ़ते और गाते हैं। दुनिया की सभी भाषाओँ में तुलसी की रामायण का जितना अनुवाद हुआ है , किसी और रचना की नहीं। शोध भी दुनिया भर में हुए हैं। और आप उस तुलसी की रचना से कुछ हटाने की हिमाकत करते हैं। कहां-कहां से तुलसी को मिटाएंगे ?

तुलसी से असहमत होना आप का अधिकार है। पर उन की श्रीराम चरित मानस से कोई चौपाई हटाने का अधिकार किसी भी को नहीं। साक्षात तुलसीदास जो उपस्थित हो जाएं तो उन को भी नहीं। तुलसी की रामायण आज भी दुनिया में न सिर्फ सब से ज़्यादा पढ़ी जाने वाली रचना है बल्कि सब से ज़्यादा बिकने वाली रचना भी है। अकेले भारत में रामायण की दस हज़ार प्रतियां गोरखपुर का गीता प्रेस ही रोज बेचता है। तुलसी की रामायण बाइबिल की तरह मुफ्त में नहीं बांटी जाती। तुलसी की रामायण सद्भाव सिखाती है। शालीनता और मर्यादा सिखाती है। सिर तन से जुदा करना नहीं। किसी खल पात्र का संवाद तुलसी का कथन कैसे मान लेते हैं आप भला ? इतने मतिमंद हैं अगर आप कि रावण के संवाद को भी आप तुलसी की राय मान लेते हैं और समाज में विष-वमन का व्यापार करने लगते हैं , तो प्रकृति आप को सद्बुद्धि दे !

तुलसी से जिसे लड़ना हो लड़ता रहे , सर्वदा पराजित होता रहेगा। त्रिलोचन ने एक जगह लिखा है कि एक बार वह निराला से मिलने प्रयाग में दारागंज स्थित उन के घर गए। बड़ी देर तक दरवाज़े के बाहर बैठे रहे। दरवाज़ा खुला हुआ था। बहुत ज़्यादा देर हो गई तो त्रिलोचन भीतर गए तो देखा कि निराला एक फ़ोटो से लड़ रहे थे। निराला असहाय हो कर फ़ोटो को संबोधित कर कह रहे थे कि क्या करुं कि तुम से बड़ा बन सकूं। राम की शक्ति पूजा जैसी असाधारण कविता लिखने वाले निराला यह कह रहे थे। और जिस फ़ोटो से लड़ते हुए निराला यह कह रहे थे , वह फ़ोटो तुलसीदास की थी।

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार है)

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