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हमें गलत बताया कि शूद्रों को शिक्षा का अधिकार नहीं था

- राजकमल गोस्वामी की कलम से-

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Positive India:Rajkamal Goswami:
शूद्र शिक्षा
अंग्रेजों ने हमें यह बताया कि शूद्रों को शिक्षा का अधिकार नहीं था । इसका परीक्षण करना ज़रूरी है । अंग्रेजों का तो काम ही था देश में फूट डाल कर अनंत काल तक भारत पर राज करना और उसका आर्थिक दोहन करना ।

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वर्ण व्यवस्था में चारों वर्णों के बीच कार्य विभाजन था । ब्राह्मण का काम पठन पाठन श्रुतियों स्मृतियों आदि प्राचीन ज्ञान का संरक्षण और नए ज्ञान का शोध और अर्जन । क्षत्रिय का काम समाज को सुरक्षा प्रदान करना और उसके शस्त्र संचालन, राजनीति सीखना , राज्य की रक्षा के लिए युद्ध करना । वैश्य का काम व्यापार है । इन सब वर्णों के काम परिभाषित थे शेष सभी काम शूद्रों के ही थे ।

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आपको क्या लगता है कि यह विशाल वृहदेश्वर मंदिर, मीनाक्षी मंदिर, एलोरा का कैलास मंदिर ब्राह्मण क्षत्रियों और वैश्यों ने बनाए होंगे ? पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैली प्राचीन कलाकृतियों का निर्माण बिना पढ़े लिखे लोगों ने किया था ? यह नपी तुली छोटी से लेकर बड़ी मूर्तियाँ और निर्माण कार्य बिना ज्यामितीय और गणितीय ज्ञान के संभव है ? जल संग्रहण के लिए सुदर्शन झील, रानी की बाव और चंपा बावड़ी किसने बनायी थी ?

सत्य यह है बिना पढ़े लिखे कारीगर कुछ नहीं बना सकते । ८० टन का शिखर निर्मित कर बृहदीश्वर मंदिर पर चढ़ाना निरक्षरों का काम नहीं हो सकता और ब्राह्मण तो आज भी हल की मूठ नहीं पकड़ता भले खेती बिक जाए । क्षत्रियों के बस का भी कलाकारी का काम नहीं था और वैश्य तो सेठ होता था वह धन खर्च कर सकता था पर शिल्पकला उसके बस के बाहर की बात थी ।

तमिलनाडु में तो ब्राह्मण ३% भी नहीं हैं और क्षत्रिय वहाँ पाये ही नहीं जाते फिर भी सर्वाधिक प्राचीन कलाकृतियाँ वहीं पाई गई हैं ।

वास्तविकता यह है कि ब्राह्मण केवल श्रुतियाँ वेद पुराण स्मृतियों आदि का संरक्षण करता था । अन्य सभी विद्यायें सर्वसमाज के लिए खुली थीं । वैद्यक तो शूद्रों का ही व्यवसाय था । प्रसिद्ध वैद्य जीवक आम्रपाली का पुत्र था जो गणिका थी । यदि शूद्रों पर शिक्षा का प्रतिबंध होता तो सारा तमिलनाडु निरक्षर होता । अंग्रेजों ने आकर तमिल नहीं पढ़ाई है उन्हें । तमिल साहित्य का इतिहास हज़ारों साल पुराने संगम साहित्य से शुरू होता है ।

अस्पृश्यता भी मध्यकालीन भारत की देन है जब इस्लाम के आगमन के बाद सभी जातियों ने अपने जाति बंधन दृढ़ कर लिए । महाभारत काल और रामायण काल में अस्पृश्यता के दर्शन नहीं होते ।

ऐसा नहीं है कि इस झूठ से लोग परिचित नहीं हैं लेकिन मान लेने से राजनीतिक लाभ खोने का ख़तरा है । जो जातियाँ भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थीं , खेती किसानी पशुधन पर जिनका स्वामित्व था आज पिछड़ी जातियों में शुमार हैं । भला जाटों को किसी दृष्टि से पिछड़ा माना जा सकता है । यह एक संयोग की बात है कि आज के युग में पढ़ाई लिखाई की कद्र है वरना हमारे बाल्यकाल में सरकार घर से पकड़ पकड़ कर बच्चों को स्कूल लाती थी पर उनके अभिभावक प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्हें पुश्तैनी काम काज में लगा देते थे । सरकारों ने मध्याह्न भोजन की योजना से लेकर प्रौढ़ शिक्षा तक अनेक योजनाएँ चलाईं लोग फिर भी पढ़ने को तैयार नहीं हैं । किंतु दोष ब्राह्मणों पर मढ़ा जाता है कि उन्होंने पढ़ने नहीं दिया ।

ठीक है राजनीतिक लाभ उठाइए, शासन सत्ता में हिस्सेदारी लीजिए मगर झूठ बोल कर वैमनस्य तो न बढ़ाइए । लाखों रुपये रोज़ की मिठाई बेचने वाला हलवाई ओबीसी है और मात्र दक्षिणा के बदले कथा बाँचने वाले पंडित जी उसके शोषक हैं ।

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साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)

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