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क्या आप आस्था बनाम प्रमाण का फर्क जानना चाहते है?

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
बाल्यकाल में मैं बहुत आस्थावान था। सगुण भक्ति की जितनी भी कसौटियां सोच लीजिए, अपने सामर्थ्य के अनुसार हमेशा निष्ठा से उपलब्ध रहता था। फिर तरुणाई चढ़ने लगी, बौद्धिकता का झोंका आया, मैं उस में बह गया। ऐसा बहा कि आज तक भी मेरी पूर्ण घर वापसी नहीं हुई है। लाख प्रयास के बावजूद मैं पहले जैसा नहीं बन पाया हूं। यह ठीक है कि सत्संग की ध्वनि मुझे सदा से आकर्षित करती रही और हृदय में आस्था का एक दीया सदा जगमगाता रहा। लेकिन किसी भी तरह के अनुष्ठान कर्मकांड में पूरी तरह से निष्ठा आज तक वापस नहीं हुई है। फिर सामाजिक मीडिया पर आया तो मुझे लगा कि तमाम आस्था पद्धतियों के बीच सनातन एक पीड़ित की तरह भुगत है। सनातन को चौतरफा गालियां मिलती थी। मैं बचाव पक्ष में शामिल हो गया और इसी बहाने मुझे आस्था के निकट आने का फिर अवसर मिल गया। पर सबसे बड़ी बात कि मेरी मासूमियत खत्म हो गई।

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आचार्य धीरेन्द्र शास्त्री जी की मासूमियत खत्म नहीं हुई। वे आज भी मासूम हैं। श्याम मानव कल को आस्थावान हो जाएं, कुछ वैसा ही मैं हूं। लेकिन शास्त्री जी की जो मासूमियत है वह ओरिजिनल है। तमाम मित्र शास्त्री जी को लेकर एक बात पर निश्चित रूप से सहमत हैं कि शास्त्री जी मासूम हैं, भोले हैं। उनमें छल प्रपंच की समझ नहीं है। परिपक्वता नहीं है। उलझने फंसने पर कैसे निकलेंगे इसका ज्ञान नहीं है। मैं कहता हूं जिस दिन उन्हें यह ज्ञान हो जाएगा उस दिन उनका भोलापन, उनकी मासूमियत छीन जाएगी। उनकी निष्ठा में से ईमानदारी खत्म हो जाएगी। ठीक वैसे जैसे मुझे निष्ठा तो है, पर मालूम है कि मेरी निष्ठा बाल्यकाल जैसी इमानदार नहीं है।

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एक बात और मानना पड़ेगा, शास्त्री जी में जिस प्रकार भोलापन है, उसी प्रकार एक और गजब की चीज है। वह है उनका आत्मविश्वास। उनका आत्मविश्वास उनके इष्ट पर। सही मानिए तो मैं स्वयं को अभागा मानता हूं। वैसा आत्मविश्वास अपने किसी इष्ट को लेकर शायद ही आजीवन मुझे जग पाए! बौद्धिकता का झोंका मुझ पर पड़ा हुआ है। इसलिए शास्त्री जी को लेकर मैं यही कहता हूं कि उनके पास तंत्र विद्या है, जो कि तमाम बौद्धिक प्रपंची व्यक्ति भी साधना करके प्राप्त कर सकता है। जबकि धीरेंद्र शास्त्री पूरी निष्ठा से यह जानते हैं कि उनके मन में किसी अर्जीदार के नाम, पिता का नाम और उनकी समस्या प्रेरित होती है तो यह प्रेरणा बागेश्वर धाम हनुमान जी के कारण आती है। मेरा मन आज भी इसे तंत्र शक्ति से अधिक मानने को तैयार नहीं।

चमत्कार यदि होता भी होगा तो मेरे जैसे जीवो के लिए तो निश्चित तौर पर कभी घटित नहीं होगा। जब भी घटित होगा वह धीरेंद्र शास्त्री जैसे आस्था वालों के लिए ही। जब तक धीरेंद्र शास्त्री जी में वही इनोसेंस बना रहेगा, वही निष्ठा बनी रहेगी, वही भोलापन बना रहेगा, तब तक शास्त्री जी का कोई बाल बांका नहीं हो सकता। बागेश्वर धाम हनुमान जी पर उनका आत्मविश्वास सदा उनकी रक्षा करता रहेगा और हम जैसे लोग प्रमाणिकता का भाव लेकर सदा ऐसे आस्तिक स्वाद से वंचित रहेंगे।

हनुमान चालीसा का पाठ शास्त्रीजी जैसे मासूम भक्त भी करते हैं और सुधीर चौधरी जैसे समझदार बौद्धिक व्यक्ति भी। सुधीर चौधरी से इंटरव्यू में शास्त्री जी कहते हैं हनुमान चालीसा जब लोग पढ़ते हैं, आस्था रखते हैं, उसमें पंक्ति है “भूत पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे”, इस पंक्ति पर दोनों ही प्रकार के व्यक्ति राजी हैं। भोले व्यक्ति भी और हम बौद्धिक व्यक्ति भी। तो फिर धीरेंद्र शास्त्री जी के दरबार में प्रेत बाधा में पड़े पुरुष जमीन में लोटते हैं और स्त्रियां बाल नचाती हुई अजीब अजीब हरकतें करती हैं, मंच पर बैठे भोले धीरेंद्र शास्त्री इसे प्रेत बाधा मानकर अपने इष्ट से स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रार्थना करते हैं और हम जैसे बौद्धिक लोग चालीसा वाला ‘भूत-पिशाच’ भूल कर इसे दरबार का नाटकीय प्रदर्शन मान लेते हैं और आस्था के नाम पर होने देने के लिए अपने मन को राजी कर लेते हैं। मन को यह भी समझा देते हैं कि तमाम मजहब वाले भी इस तरह के नाटक प्रदर्शन करते हैं इसलिए यहां भी हो तो क्या दिक्कत। तभी सुधीर चौधरी प्रश्न करते हैं क्या पादरी वाले दरबार में प्रेत बाधा के नाम पर अजीब हरकतें करती हुई स्त्रियों और बागेश्वर धाम दरबार में अजीब हरकत करती हुई स्त्रियों दोनों एक ही बात है या अलग अलग? शास्त्री जी जवाब देते हैं कि हमारे दरबार में प्रेत बाधा को नाश करने के लिए हम इष्ट से प्रार्थना करते हैं और फिर बागेश्वर सरकार पॉजिटिव एनर्जी प्रवाहित करके भक्तों को ठीक कर देते हैं। और सनातन का झंडा गाड़ देते हैं। पादरियों के दरबार में इतना सामर्थ्य नहीं, बस प्रपंच होता है और इसलिए लोग उस तरफ ना जाकर सनातन धारा से जुड़ रहे हैं। विरोधी शक्तियों को इसी बात का खौफ है। मिशनरियों का झंडा उखड़ रहा है।

शास्त्री जी कहते हैं उनके मन में बातें प्रेरित होती हैं। दूसरों के बारे में जानकारी, सूचनाएं प्रेरित होती हैं और वह जब बोलते हैं तो सत्य निकलता है। यह सब क्यों होता है, कैसे होता है, उन्हें भी नहीं मालूम था जब वह बाल्यकाल में थे। अपने दादाजी गुरु से बताते थे कि अगले व्यक्ति का नाम क्या होगा उनके मन में पहले से प्रेरित होता है। गुरुजी हंसकर उनकी बातों को टाल देते थे। इसके पीछे का कारण आज शास्त्री जी अपने इष्ट बागेश्वर धाम सरकार हनुमान जी का आशीर्वाद बताते हैं। हम जैसे लोग आस्था के समर्थक तो हैं लेकिन कहीं ना कहीं भीतर प्रमाण की लालसा रखते हैं। इसलिए जब कोई धीरेंद्र शास्त्री जैसा व्यक्ति सामने आता है तो मन दुविधा में पड़ जाता है। प्रमाण की बातें छोड़कर आस्था के सामने नतमस्तक हो जाना पड़ता है। इसलिए हर बात में यदि हम प्रमाण चाहते हैं तो पूरी तरह से आस्था को इनकार करके चलना पड़ेगा। कभी कमजोर नहीं पड़ना होगा, चाहे हिंदुत्व की भी कीमत लगा देनी पड़े।

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार है)

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