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अंग्रेज़ अपने दुश्मनों को भी पेंशन क्यो देते थे ?

- राजकमल गोस्वामी की कलम से-

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Positive India:Rajkamal Goswami:
अंग्रेज़ अपने दुश्मनों को भी पेंशन देते थे । बदादुर शाह ज़फ़र का कोई भी वंशज उनकी जानकारी में आया तो उसे उन्होंने खोज कर पेंशन दी । जितने भी राजे रजवाड़ों की रियासत छीनी उन सबको पेंशन दी ।

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अंग्रेज़ अपने सैनिकों को बेहतरीन सेवा शर्तों पर रखते थे । मेजर स्ट्रिंगर लॉरेंस को फ़ादर ऑफ़ इंडियन आर्मी कहा जाता है । देशज नौजवानों को लाल पलटन में सिपाही की नौकरी पर उसी ने रखा । पहले उसे भारतीयों की निष्ठा पर संदेह था पर कर्नाटक युद्धों में उसने भारतवासियों की आपसी फूट को पहचान लिया । और उसे बहुत सारे देशज सिपाही मिल गये । प्लासी का युद्ध तो अंग्रेजों ने रिश्वत देकर जीत लिया ।

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एक बार बंगाल जीत लेने के बाद अंग्रेजों ने बंगाल आर्मी में भर्ती के लिए व्यापक अभियान चलाया । जहाँ मुग़ल मराठा और सिख अपने सैनिकों को समय पर वेतन नहीं दे पाते थे वहाँ अंग्रेजों ने शानदार वेतन के साथ जीवन भर पेंशन देने का वादा किया । अंग्रेज़ी सेना में भर्ती के लिए भीड़ उमड़ पड़ी । अंग्रेजों ने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि अलग-अलग जातियों की अलग-अलग पलटनें बनाई जायें । उनके बीच के भेदभाव का पूरा लाभ उठाया जाये ।

सन सत्तावन का विद्रोह कुचलने के लिए जब कर्नल नील इलाहाबाद पहुँचा तो क़िले पर फ़िरंगी झंडा देख कर चकित हो गया । सारा शहर विद्रोही मौलवी लियाक़त अली के क़ब्ज़े में था मगर क़िले की रक्षा वफ़ादार सिख पलटन कर रही थी । मुग़ल बादशाहों द्वारा सिख गुरुओं की शहादत ने उन्हें बहादुर शाह ज़फ़र की फ़ौजों का साथ नहीं देने दिया ।

दो सौ वर्षों तक अंग्रेज़ी राज सिर्फ़ रॉयल ब्रिटिश इंडियन आर्मी के बूते क़ायम रहा । अंग्रेजों का सिद्धांत था किसी भी दशा में अपने सैनिकों के वेतन भत्तों और सेवा शर्तों से समझौता नहीं करना है ।

अंग्रेज चले गए तो इस विपन्न देश का विकास करने के लिए बहुत सारे नए विभाग खोलने पड़े । हज़ारों ब्लॉक और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खुल गए । गाँवों की तरफ़ विकास की गंगा बह चली । सारे गाँव पक्की सड़कों और बिजली के तारों से जुड़ गए । लाखों नए कार्मिक भर्ती करने पड़े तो उनकी पेंशन का बोझ भी सरकारों पर पड़ने लगा । औसत आयु भी बढ़ गई , नतीजा यह हुआ कि बजट का मोटा हिस्सा पेंशन में खर्च होने लगा । फिर जन प्रतिनिधियों में अपने लिए भी पेंशन का लालच उत्पन्न हुआ तो उनकी भी पेंशन बंध गई । लोक लुभावन योजनाओं से वोट मिलता है तो तरह-तरह की पेंशन शुरू की गईं । वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन के अतिरिक्त मनरेगा जैसी पैसा लुटाऊ योजनाएँ आ गईं । इनके लिए धन की व्यवस्था कैसे हो ? तो सरकार ने सरकारी कर्मचारियों की पेंशन बंद कर दी ।

इतनी अक़्ल राजनेताओें में फिर भी बची रही कि सैनिकों की पेंशन बंद नहीं की गई । पर चूक यहाँ भी हो गई । पैरा मिलिटरी फ़ोर्स को सेना नहीं माना जाता है । वे लोग भी सिविलियन में शुमार हो गए लिहाज़ा बीएसएफ़, भारत तिब्बत सीमा पुलिस जैसे अर्द्ध सैनिक बलों की भी पेंशन बंद हो गई । जब शांतिकाल में सेना अपनी छावनी रहती है तो ये अर्द्ध सैनिक बल ही मोर्चा सँभालते हैं । इनकी ड्यूटी सेना से कहीं अधिक कठिन और संवेदनशील होती है । अभी कुछ ही दिन पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने इनकी पुरानी पेंशन बहाल करने के आदेश किए हैं । उम्मीद है सरकार अक़्लमंदी दिखाएगी और ऊपर अपील में नहीं जाएगी ।

पेंशन कोई बड़ी चीज़ नहीं है लेकिन पेंशन बहुत बड़ी सामाजिक सुरक्षा की गारंटी होती है । बड़े बूढ़े पेंशनधारियों का घर में सम्मान होता है , घरवाले उनके दीर्घजीवन की कामना करते हैं सेवा भी करते हैं । नई पेंशन योजना में उन्हें मिलने वाली एकमुश्त रक़म बच्चे हड़प जायेंगे । जो पेंशन मिलेगी वह भी उन्हीं के जमा धन से मिलेगी लिहाज़ा मरने के बाद वह रक़म भी कैश करा ली जाएगी । अपने जीवन के उत्पादक दिनों को सरकार की सेवा में बिता कर बुढ़ापे में आर्थिक असुरक्षा में जीवन बिताना भयावह कल्पना है । अभी २००५ के बाद वाली भर्ती के लोग रिटायर हुए नहीं हैं इसलिए इसके दुष्परिणाम सामने आ नहीं रहे हैं ।

बेईमानों के बारे मैं तो नहीं कह सकता लेकिन ईमानदार सरकारी कर्मचारी को मात्र पेंशन के कारण निर्भीक होकर दुर्गम स्थलों में काम करते मैंने देखा है । सरकार पेंशन देगी , मर गए तो पत्नी को जीवन भर पारिवारिक पेंशन देगी यह भाव ही निश्चिंतता उत्पन्न करने वाला है ।

आज़ादी के बाद देश ने क्या ख़ाक़ प्रगति की है , हम दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के सपने देखते हैं और अपने कर्मचारियों को पेंशन तक देने की औक़ात नहीं है ।

सरकारी कर्मचारियों से जलनेवालों की कमी नहीं हैं इसलिए मुझे इस पोस्ट पर बहुत समर्थन मिलने की आशा नहीं है ।

हम क्या कहें अहबाब क्या कारे नुमायाँ कर गए
बीए किया नौकर हुए पेंशन मिली और मर गए

साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)

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