शाहरुख खान ने क्यों कहा कि कला को मजहब और सरहद से अलग रखना चाहिए ?
- विशाल झा की कलम से-
Positive India:Vishal Jha:
“कला को मजहब और सरहद से अलग रखना चाहिए”, ये सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली पंक्ति यदि किसी के द्वारा प्रयोग किया गया तो, वह नाम शाहरुख खान ही है। शाहरुख खान इस कांसेप्ट के बड़े हिदायती रहे हैं। बड़े-बड़े मंचों पर उन्होंने अपनी इस बात को प्रमुखता से उठाया है। कि चाहे 26/11 जैसी वारदात हो जाए, हमारे देश की सेना बलिदान जाए अथवा हमारे देश के नागरिक पड़ोसी मुल्कों के द्वारा फैलाई दहशत के शिकार हो जाएं, कला तो कला होती है, इसे मजहब और सरहदों में नहीं बांधना चाहिए।
आश्चर्य होगा, कला जगत के नाम पर अकेली इतराती बॉलीवुड में मजहब को न केवल जानबूझकर शामिल किया गया, बल्कि इसे एक संस्थागत रूप देकर दशकों तक इस पर काम किया गया। संस्था का नाम है ‘मुस्लिम सोशल’। विवेक अग्निहोत्री ने इसको लेकर खुलासा किया है। मुस्लिम सोशल नाम की संस्था न केवल एक दो दशक तक बल्कि 50-50 वर्षों तक बॉलीवुड में सक्रिय काम करता रहा। इस्लामिक तत्वों को फिल्म जगत के माध्यम से तीखे प्लानिंग के साथ भारत में फैलाया जाता रहा। फिल्म नजमा, एलान, मिर्जा गालिब, मुग़ल-ए-आज़म, पाकीजा, सनम बेवफा और फना आदि जैसी तमाम फिल्में देशभर में इस्लामिक शैली के लिए 1930 से शुरू हुई और 21वीं के आगाज तक लगातार बेरोकटोक चलती रहीं।
इस काम के लिए जो नाम जो हस्ती काम करते रहे उनमें महबूब खान, कमाल अमरोही से लेकर साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूनी, मोहम्मद रफी, शमशाद बेगम जैसे पूजनीय नाम शामिल हैं। हाल के दशकों में तो यह देखा गया कि जब इन नामों की कमी पड़ गई तो पाकिस्तान से नाम बुलाए जाते रहे। यह एसे नाम हैं जिन्होंने फिल्म जगत में साहित्य जिहाद को एक नई ऊंचाई तक पहुंचाया। ऐसे नाम हैं जो भारत जैसे देश की कमजोरी बन गए और इनके बलबूते देशभर में इस्लामिक शैली खूब फला फूला। यद्यपि ‘मुस्लिम सोशल’ संस्था संस्थागत रूप से 1980 तक आते-आते बंद हो गई, लेकिन इसका प्रभाव आज भी बड़े मौज से काम कर रहा है।
शाहरुख खान की लगातार जो फिल्में आई हैं, उसका नाम देखकर आपको क्या लगता है? बादशाह, माय नेम इज खान, रईस, अब जो फिल्म आई है पठान, किसी मुस्लिम सोशल का एक हिस्सा है तो है। जो व्यक्ति बड़ी निर्लज्जता से कला को मजहब और सरहद से दूर रखने की बात कहता रहा, लगातार उसी पर काम करता रहा।
बॉलीवुड में इस्लामिक तत्वों के प्रचार प्रसार को लेकर बातें किसी से छुपी हुई नहीं है। लेकिन केवल ओपिनियन के आधार पर बातें करना और ठोस तथ्यों पर आधारित बातें करना, दोनों में फर्क होता है। हमें लगता है कि बॉलीवुड में साहित्य जिहाद को एक नए आयाम से एक्सपोज करने के लिए मुस्लिम शैली जैसी संस्था पर सोशल मीडिया में भरपूर लिखा जाना चाहिए।
साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार है)