मां के बनाए काजल की कालिख से मुनव्वर राना ने अपना चेहरा काला कर लिया
-दयानंद पांडेय की कलम से-
यह अच्छा ही हुआ कि मुनव्वर राना के खिलाफ उत्तर प्रदेश पुलिस ने सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने के आरोप में लखनऊ में एफ आई आर दर्ज कर ली है। एफ आई आर हुई है तो कार्रवाई भी होगी ही। कुछ साल पहले लखनऊ के एक सेमीनार में हिंदी , उर्दू दोनों ही भाषा के लोग बुलाए गए थे। विषय अलग-अलग थे। तबीयत भी जुदा-जुदा थी सब की। पर सभी ने सभी को सुना। मुझे सुनने के बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग के एक रीडर और प्रोफेसर मुझ से मिले और बड़ी गर्मजोशी से मेरी बात की तारीफ़ करने लगे। बाद में यह दोनों लोग भी बोले। दोनों ही लोग एक बात पर लगभग एकराय थे। दोनों ही ने लखनऊ में उर्दू शायरी पर बात की और बहुत ज़ोर दे कर कहा कि मीर के बाद फिर लखनऊ में कोई कायदे का शायर नहीं हुआ। वाजिद अली शाह तक वह लोग गए। तमाम और बातें भी कीं।
पर मीर के बाद कोई शायर न हुआ की रट नहीं छोड़ी। सत्र समाप्त होने के बाद लंच के दौरान हम लोग फिर मिले। वह लोग बड़ी मोहब्बत से बात करते रहे। अचानक मुझे जाने क्या सूझा कि इन दोनों से पूछ ही लिया कि मीर के बाद आप लोग लखनऊ में किसी शायर का होना किस बिना पर नहीं मानते। वह लोग मेरी इस बात पर सर्द हो गए। उन्हों ने कहा , उर्दू के बारे में आप को कुछ मालूमात भी है ? हम ने कहा , थोड़ा बहुत। वह लोग हिचक कर चुप हो गए। फिर धीरे से बोले , मीर के बाद लखनऊ में कौन शायर है ? मैं ने मजाज का नाम लिया। वह लोग चुप रहे। फिर वाली आसी का नाम लिया। वह लोग मुझे घूरने लगे। कृष्ण बिहारी नूर का नाम लिया तो वह लोग अपनी प्लेट किसी अंधे की मानिंद टटोलने लगे। और ज्यों ही मैं ने मुनव्वर राना का नाम लिया , दो के दोनों मुझ पर जैसे फट पड़े। बोले , यह सब शायर हैं ? मुशायरों में तालियां बटोरने वालों को आप शायर मान लेते हैं ? एक सज्जन उखड़ते हुए बोले , हम तो आप को पढ़ा , लिखा समझदार आदमी मान बैठे थे। फिर उन्हों ने कुछ कवि सम्मेलनी कवियों के नाम लिए और पूछा , फिर तो आप इन लोगों को भी कवि मानते होंगे ? मैं भी भड़क पड़ा और बोला , यह लोग भडुए हैं , कवि नहीं। उन दोनों के चेहरे पर जैसे चमक आ गई। बोले , बिलकुल उर्दू शायरी में मुनव्वर राना जैसों का भी यही मुकाम है।
यह वही दिन थे जब मुनव्वर राना मां पर ग़ज़लें लिख कर शोहरत बटोर रहे थे। साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी इन्हीं दिनों मिला मुनव्वर राना को। साहित्य अकादमी पा कर वह गुरुर में भी आए। बाद में मैं ने पाया कि मुनव्वर राना तो मिरासियों से भी गए गुज़रे निकले। लीगी और जेहादी मानसिकता से तर-बतर मिले वह। ट्रांसपोर्ट का उन का बड़ा कारोबार है ही। पर मेरी जानकारी में लखनऊ के वह इकलौते शायर है , अगर उन्हें शायर मान लिया जाए तो जिस ने अपनी शायरी के मैनेजमेंट आदि के लिए बाकायदा मैनेजर रख रखा है। कोई किसी मुशायरे आदि के काम से उन्हें फोन करता है तो वह कहते हैं , मेरे मैनेजर से बात कर लीजिए। लेकिन खासियत उन में यह भी है कि जिस भी किसी से उन का मतलब निकल आए , उस की मिजाजपुरसी और कोर्निश बजाना उन का जैसे शगल ही है।
लखनऊ के एक बदनाम व्यवसायी के जन्म-दिन पर वह बाकायदा चोंगा वगैरह पहन कर पहुंचते रहे हैं। एक बार तो हद ही कर दी मुनव्वर रान ने। इस बदनाम व्यवसायी के लिए बाकायदा एक लंबी नज़्म पढ़ी जिस में उसे जहांगीर के खिताब से नवाज दिया। मुलायम सिंह यादव के दरबार में भी वह नियमित कोर्निश बजाने पहुंचते रहे हैं। अखिलेश यादव के लिए भी बदस्तूर कोर्निश बजाते रहे हैं। कांग्रेस के लिए भी। मुनव्वर राना द्वारा मां पर लिखी ग़ज़लों का दीवान जब वाणी प्रकाशन ने हिंदी में छापा तो मुलायम और अखिलेश को खुश करने के लिए अपने इस दीवान को उन्हों ने अखिलेश की मां और मुलायम की उपेक्षिता पत्नी मालती देवी को जिस तरह समर्पित किया , उन का वह अंदाज़ भी बड़े-बड़े चाटुकारों को पस्त कर गया। चाहे तो आप भी इसे देखें और मुनव्वर राणा की मस्केबाजी की तबीयत का अनुमान लगाएं। कि बड़े-बड़े चाटुकार , भड़ुए और मिरासी भी शर्मा जाएं।
शुरू-शुरू में नरेंद्र मोदी के इस्तकबाल में भी मुनव्वर राना ने खुद को खर्च किया। लेकिन जब उधर से कोई पॉजिटिव रिस्पांस नहीं मिला तो जावेद अख्तर की तरह इन के अहंकार को भी ठेंस लग गई। जावेद अख्तर भी अटल बिहारी वाजपेयी के परम प्रशंसकों में से रहे हैं। जावेद खुद बताते रहे हैं कि अटल जी बतौर प्रधान मंत्री उन्हें डिनर आदि पर बुलाते रहते थे। लेकिन इस नरेंद्र मोदी नाम के आदमी को कुछ समझ ही नहीं है। कभी कुछ पूछता ही नहीं। फिर नरेंद्र मोदी द्वारा अपनी निरंतर उपेक्षा से आहत जावेद अख्तर का सेक्यूलरिज्म जाग गया। सेक्यूलरिज्म जागते-जागते इतना जाग गया जावेद अख्तर का कि उन का लीगी और जेहादी मुसलमान जाग गया। राज्य सभा में एक समय बेधड़क भारत माता की जय बोलने वाले जावेद अख्तर अब सेलेक्टिव चुप्पी और सेलेक्टिव विरोध का खेल खेलते हैं। फरुखाबादी खेल की तरह। पी एम के डिनर से अपना रूतबा छिन जाने को वह घृणा में तब्दील कर चुके हैं पूरी तरह। यही हाल तमाम पढ़े-लिखे मुसलमानों का है इन दिनों।
तो मुनव्वर राना तो पुराने लीगी , जेहादी और जेहाद के कारोबारी हैं। नरेंद्र मोदी सरकार से अपेक्षित रिस्पांस न मिल पाने से खफा मुनव्वर राना तो जब साहित्य अकादमी अवार्ड की वापसी की बयार बह रही थी तो एक न्यूज़ चैनल में जब डिवेट के लिए पहुंचे तो बाकायदा साहित्य अकादमी अवार्ड का तामझाम झोले में ले कर पहुंचे और लाइव डिवेट में साहित्य अकादमी अवार्ड वापस करने का ड्रामा करने वाले वह इकलौते आदमी बने। उन का यह ड्रामा मोदी वार्ड के तमाम मरीजों के लिए जैसी ताज़ी हवा का झोंका बन कर उपस्थित हुआ। यह सब तब था जब न सिर्फ मुनव्वर राना बल्कि सभी के सभी लेखक , कवि इस तथ्य से भली भांति परिचित थे कि साहित्य अकादमी अवार्ड कभी भी किसी भी सूरत में वह वापस नहीं कर सकते। क्यों साहित्य अकादमी के संविधान में यह साफ़ लिखा हुआ है कि साहित्य अकादमी अवार्ड एक बार मिल जाने के बाद न कोई लेखक उसे वापस कर सकता है , न साहित्य अकादमी उसे वापस ले सकती है। यह भी कि साहित्य अकादमी , अवार्ड देने के पहले हर लेखक से इस बाबत लिखित सहमति भी ले लेती है।
तो जो लोग नहीं जानते हैं , वह लोग अब से जान लें साहित्य अकादमी अवार्ड की वापसी विशुद्ध रूप से सिर्फ और सिर्फ ड्रामा था। किसी भी लेखक ने साहित्य अकादमी को एक पैसा भी नहीं लौटाया। उलटे प्रति वर्ष किताबों की रायल्टी भी ले रहे हैं। क्यों कि होता यह है कि लेखक की जिस भी कृति पर साहित्य अकादमी मिलता है , उस कृति का संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज सभी भाषाओँ में अनुवाद होता है और उस की रायल्टी संबंधित लेखक को प्रति वर्ष दी जाती है। यह भी जान लेना ज़रूरी है कि साहित्य अकादमी लेखकों द्वारा चुने गए लेखक ही चलाते हैं। कोई सरकार नहीं। सरकार का बजट देने के अलावा एक भी पैसे का दखल कभी भी साहित्य अकादमी में नहीं होता। मोदी सरकार का भी नहीं है। अगर होता तो क्या पूर्व राजनयिक और कांग्रेसी नेता शशि थरूर को अभी-अभी जो साहित्य अकादमी अवार्ड मिला है , मिलता क्या ? तो साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी का ड्रामा मोदी विरोधी लेखकों की नपुंसक कार्रवाई थी। जो एक हद तक सफल भी रही थी।
गाय का गोश्त रखने के लिए गाज़ियाबाद में अख़लाक़ नाम की हत्या हुई। गाज़ियाबाद , उत्तर प्रदेश में आता है। क़ानून व्यवस्था प्रदेश सरकार के ज़िम्मे है। केंद्र सरकार के जिम्मे नहीं। तो अगर कुछ फासिस्ट लेखकों को अख़लाक़ की हत्या का विरोध करना ही था तो उत्तर प्रदेश सरकार का करना चाहिए था। लेकिन तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव की सरकार थी। यह फासिस्ट लेखक अखिलेश यादव की बदनामी नहीं करना चाहते थे। तो नरेंद्र मोदी को निशाने पर लिया गया। तब जब कि असल मामला कुछ और था।
मामला यह था कि पूर्व आई ए एस अफसर , कवि अशोक वाजपेयी की तत्कालीन साहित्य अकादमी अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से ठन गई थी। अशोक वाजपेयी रज़ा फाउंडेशन की तरफ से एक विश्व कविता समारोह आयोजित करना चाहते थे। इस बाबत उन्हों ने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से बात की। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी तुरंत इस के लिए सहमत भी हो गए। पर अशोक वाजपेयी चाहते थे कि सारा कुछ , जैसे चाहें , जो चाहें खुद करें। जैसे कि किस भाषा , किस देश का कौन कवि आएगा , आदि-इत्यादि अशोक वाजपेयी अपनी पसंद से करेंगे और कि सारा खर्च साहित्य अकादमी वहन करे। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने इस तरह विश्व कविता समारोह मनाने से इंकार कर दिया। कभी अर्जुन सिंह के पसंदीदा अफसर रहे अशोक वाजपेयी ने इसे दिल पर ले लिया और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से खफा हो गए। इस बीच विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने ढंग से साहित्य अकादमी में विश्व कविता समारोह संपन्न भी करवा दिया। अशोक वाजपेयी विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को निपटाने का मौका तलाश ही कर रहे थे कि गाय का गोश्त रखने को ले कर गाज़ियाबाद में अख़लाक़ की हत्या हो गई। अशोक वाजपेयी ने फौरन अपने शिष्य उदय प्रकाश को फोन कर साहित्य अकादमी अवार्ड वापस कर देने को कहा।
उदय प्रकाश ने बिना देर किए नाखून कटवा कर जैसे लोग शहीद होने में अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं , अपना नाम दर्ज करवा लिया। वैसे भी उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी गलत ढंग से अशोक वाजपेयी ने ही दिया था। उदय प्रकाश की कहानी मोहनदास हंस में दो किश्तों में छपी थी। पर साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए इसी कहानी को बड़े फ़ॉन्ट में छाप कर उपन्यास बता कर , उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी दे दिया गया। तब जब कि उस बार साहित्य अकादमी के आधार पत्र में भी उदय प्रकाश का नाम नहीं था। उस बार ज्यूरी में तीन लोग थे। अशोक वाजपेयी , मैनेजर पांडेय और चित्रा मुद्गल। जब आधार पत्र को परे रख कर अशोक वाजपेयी ने उदय प्रकाश का नाम मोहनदास के लिए प्रस्तावित किया तो मैनेजर पांडेय ने इस का ज़बरदस्त विरोध किया। पर चित्रा मुद्गल ने अशोक वाजपेयी का समर्थन कर दिया।
सो उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी मिल गया। अब जब उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी अवार्ड की वापसी की घोषणा की तो बाकी वामपंथी लेखकों को अशोक वाजपेयी ने लामबंद किया। अशोक वाजपेयी खुद वामपंथी नहीं हैं , एक समय वामपंथियों के कट्टर विरोधी भी रहे हैं। पर वामपंथियों की कमज़ोरी वह जानते हैं। जानते हैं कि वामपंथी लेखक सिर्फ इस्तेमाल होने के लिए पैदा हुए हैं। मोदी विरोध के नाम पर वामपंथी लेखक फटाक से तैयार हो गए। वामपंथियों और मुसलमानों को इन दिनों मोदी विरोध में कोई जुलाब भी लेने को कह दे तो वह आगा-पीछा सोचे बिना सहर्ष तैयार हो जाते हैं।
तो उसी लहर में मुनव्वर राना भी सवार हो गए। और एक न्यूज़ चैनल के लाइव डिवेट में साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी का ड्रामा कर बैठे। बहुत दिनों से पानी शांत था। पर बीते दिनों वह ग़ज़ल चोरी के आरोप में घिर गए। यह चोरी की ग़ज़ल भी मां पर ही है। खैर अभी इस चोरी से मुनव्वर राना उबरे भी न थे अभी उस से उबरे भी नहीं थे कि फ़्रांस में इस्लामिक जेहादियों द्वारा हिंसा की पैरोकारी में वह पूरी ताकत से खड़े हो गए हैं। इस्लाम की रौशनी में वह लोगों का गला काटने को जस्टीफाई करने लगे हैं। उन के भीतर का भेड़िया जाग गया है। जाहिर है कि मुनव्वर राना की इस हिंसात्मक इस्लाम की चौतरफा निंदा हो रही है। सोचिए कि एक मुशायरे वाला शायर ही सही इस तरह किसी की हत्या के लिए हत्यारों को जस्टीफाई कैसे कर सकता हैं। यह तो बड़ी हैरत की बात है। किसी भी समुदाय , किसी भी विचारधारा या किसी भी देश का कोई भी लेखक किसी हिंसा या हत्या की पैरवी करता है तो तय मानिए कि वह लेखक या कवि नहीं है। आह से उपजा होगा गान , वैसे ही तो नहीं कहा गया है। यह ठीक है कि मुनव्वर राना की बेटी अभी-अभी कांग्रेस में दाखिल हुई है पर मुनव्वर राना की संवेदना इतनी सूख गई है कि वह हत्यारों के साथ खड़े हो गए हैं। मुनव्वर राना सिर्फ मुसलमान हैं , इंसान नहीं। धिक्कार है ऐसे करोड़ो मुनव्वर राना पर। लानत है इन पर। मुनव्वर राना का ही एक शेर है :
ज़रा सी बात है लेकिन हवा को कौन समझाए
दिये से मेरी मां मेरे लिए काजल बनाती है।
अफ़सोस कि फ़्रांस के जेहादी हत्यारों के साथ कंधे से कंधा मिला कर मुनव्वर राना ने मां के बनाए काजल को अपनी आंख में लगाने के बजाय अपने चेहरे पर पोत कर अपना चेहरा काला कर लिया है। इंसानियत को शर्मशार कर दिया है। धिक्कार है इस मुनव्वर राना पर। वह लोग जो इंसानियत से नहीं , अपने देश से नहीं सिर्फ इस्लाम को सब कुछ मानते हैं , धर्म की बिना पर इंसानियत और देश को घायल करते हैं , गद्दारी करते हैं , उन्हें सिर्फ भारत में ही नहीं , दुनिया भर में सही सबक सिखाना बहुत ज़रूरी है। बहुत हो गया सेक्यूलरिज्म के नाम पर आग मूतना। बहुत हो गई अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर अराजकता फैलाना। संविधान की दुहाई दे कर समाज में जहर फैलाने वालों को काबू करना इंसानियत के लिए बहुत ज़रूरी है। देर से ही सही , मजबूरी में ही सही मुसलमानों की फ्रांस की हिंसा को ले कर चौतरफा हमले को देखते हुए जावेद अख्तर , नसीरुद्दीन शाह जैसे तमाम लीगियों ने फ़्रांस की हिंसा की घटना की निंदा कर दी है। लेकिन मुनव्वर राना फ़्रांस मसले पर तमाम मुस्लिम देशों समेत पाकिस्तान के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े हो गए हैं। जितना हो सके इस लीगी और जेहादी शायर की मजम्मत कीजिए। ताकि फिर ऐसा दुस्साहस मुनव्वर राना तो क्या कोई एक दूसरा भी करने की सोच भी न पाए।
साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)