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आलीशान मल्टीप्लेक्स और जर्जराते टॉकीज़: लेखक गजेंद्र साहू

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Positive India:Raipur;18 April 2021

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आज इतवार है .. माफ़ कीजिए संडे। हाँ इस आधुनिकता की परत ने हमारे इतवार पर भी संडे की परत चढ़ा दी है जो कोई हैरानी की बात नही है। अक्सर संडे के दिन लोग अपना वक्त परिवार के साथ बिताते है जिसमें गार्डन घूमना , ररेस्टोरेंट में खाना और मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म देखना मुख्यरूप से कार्यक्रम का हिस्सा होता है। फ़िलहाल इन कार्यक्रमों की सुँची को कोरोना ने झाड़ू से साफ़ करके किसी कचरे के डब्बे में डाल दिया है। पर बात आज कोरोना की नही मल्टीप्लेक्स की करते है। आज आधुनिकतावाद की भट्टी में टॉकीज़ लगभग गल चुका है और उससे हमें मल्टीप्लेक्स के रूप में नया मनोरंजक माध्यम प्राप्त हो रह है। जो सीधे पृथ्वी से बाहर सौरमंडल से प्रसारित होता है न कि पल-पल घूमते रील से। आज शांति के वातावरण में फ़िल्में दिखती है न की मछली बाज़ार वाले शोर में । चलो फिर सफ़र शुरू करते है । घबराइए नही बाबा आदम के जमाने से नही शुरू करूँगा न ही पूर्वजों का एतिहासिक चित्रण करूँगा । इसके लिए मैंने किसी पुरातत्वेदा की भाँति सिनमा की खुदाई कर भी कोई जानकारी एकत्रित नही की। यह केवल १० वर्ष पुराना स्वयं का अनुभव और उम्र में क़रीबन १० वर्ष आगे की छलांग लगा चुके विद्वानो की विरह वेदना का समायोजन है।
आज मुट्ठी भर में समा जाने वाले मोबाइल की जगह पंजो से बाहर ज़मीन को निहारने वाले मोबाइल ने ले ली है और एक बड़ी खिड़की सी काँच की मोटी दीवार जिसमें सिर्फ़ एक क्लिक पर सारे ब्रम्हाण्ड की जानकारी क़तार लगाकर खड़े हो जाते है। अनेको ऐप आ गए है जिसमें फ़िल्मों की टिकटें भी बूक हो जाती है। पर पहले ऐसा नही था संघर्ष का आलम ही कुछ और था। पहले टिकट के लिए टॉकीज़ में मतदान केंद्र में मतदाता की तरह मतदान देने की भाँति लम्बी लाइन लगाना पड़ता था। अगर किसी अच्छे हीरो की फ़िल्म हो तो ये लाइन सुबह 4:00 बजे मुर्ग़े के उठने के पहले ही लग जाती थी। जो किसी माल गाड़ी की तरह इतनी लम्बी होती थी कि तीन-चार मित्र शिफ़्ट बदल-बदल कर टिकट लेने का प्रयास करते थे। तब टिकट प्रिंटर से रेलगाड़ी की तरह धीरे-धीरे नही बल्कि हाथ से सील-ठप्पा मारकर फाड़ के दी जाती थी मानो बकरे को टिका लगाकर तुरंत तलवार से धड़ अलग कर थाली में परोस दिया गया हो। अब टिकट मिलने पर फिर एक लाइन लगानी पड़ती थी जो टॉकीज़ के हॉल में प्रवेश के लिए होती थी। वर्तमान में हॉल प्रवेश से पहले हमें चोर, आतंकवादियों की तरह एक नज़र देखकर पाँव के नाखून से लेकर सर के बाल तक एक चपटी हुई बैडमिंटन वाली मशीन चलाकर पहले चेक किया जाता है। फिर बिना गवाहों और बिना सबूतों के आधार पर हमें समस्त अपराधों से बाइज्जत बरी कर हॉल में प्रवेश दिया जाता है। पर उस समय हॉल वाला ऐसे अंदर प्रवेश देता था जैसे हम सिनेमा देखने नहीं नानी के घर गर्मी छुट्टी का आनंद लेने आए हो। इसी प्यार और ममता की आड़ में कुछ बिना टिकट के भी प्रवेश कर जाते थे जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण मै स्वयं हूँ।
वर्तमान में फ़िल्म के टिकट का मूल्य और अंदर भोजन सामग्री के मूल्य को देखने से ऐसा लगता है यदि फ़िल्म देखना है तो किसी बैंक से कम दर पर ऋण लेने के लिए अप्लाई करके ही फ़िल्म देखने जाना चाहिए नही तो भैया फ़िल्म देखने के बाद पर्स, मोबाइल, ज़ेवर गिरवी रखने की नौबत आ जाए और उस समय के टिकट का मूल्य केवल उतना ही था जितना माँ कपड़े धोते वक्त जेब में खर्च किए रुपयों से बचे हुए चिलहर निकल आए और उसी चिल्लहर में २ समोसे साथ ठंडा कोलड्रिंक का बॉटल भी आ जाए। उस समय टॉकीज़ में रहीसी BMW , आइफ़ोन , ब्राण्डेड कपड़ों से नही मापी जाती थी और न शिक्षा का पैमाना MBA ,BTech की डिग्री को सौंपा गया था। ये तय होता था बालकनी की टिकट जिसे अपर क्लास से उच्च मूल्य देकर ख़रीदा जाता था। टॉकीज़ का अपर ट्रेन में पाई जाने वाले अपर का अपवाद था कि यहाँ का अपर वाला बालकनी से लोवर पर होगा। एक और गहरा अंतर था बालकनी और अपर में। बालकनी की टिकट उच्च मूल्य ज़रूर थी पर टिकट कन्फ़र्म सीट नम्बर के साथ मिलता था और अपर पहले आओ पहले पाओ जैसी खुली प्रतियोगिता अखाड़ा था जो पहले आता वो पहले पाता। कई बार लोग सिटी बस सवार लोगों की तरह खड़े होकर भी फ़िल्म देखते थे और कई बार चाय टपरी के बाहर बैठने वाली कुर्सी का भी सहारा मिल जाता था।
अभी चाहे फ़ाइट सीन हो या भावुक , चाहे मिलन हो या बिछड़न केवल एक ही रीऐक्शन होता है कि आप चुपचाप फ़िल्म का आनंद ले। पर पहले ये अलग ही रंगरूप में चलता था। जब किसी हीरो के पर्दे पर एंट्री होती थी तब लोगों का ऐसा रीऐक्शन होता था कि जैसे सचिन ने शोइबअख़तर की बॉल पर छक्का जड़कर भारत का विजय तिलक कर दिया हो। हीरो की मौत का दृश्य पुराने हॉल में शोक की लहर सा फैल जाता हो जैसे गाँव में किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति मृत्यु हो गई हो। जब हीरो के माँ-बहन पर विलन के गुंडो द्वारा अत्याचार किया जाता था तब लोग रील घूमने से पहले ही हीरो को सूचित करने का प्रयास करते थे ताकि वह समय पर आकर ये अत्याचार रोक सके । विलन की पिटाई के वक्त एकतरफ़ा हीरो को सपोर्ट कर तेज आवाज़ में उसका उत्साह बढ़ाते थे। विलन के प्रति ग़ुस्सा ऐसा कि अभी पर्दा फाड़ के उसे बाहर ले आए और किसी मामूली जेबकतरे की तरह पीटकर सब अपनी भड़ास वही निकाल दे। सच कहूँ तो अपर क्लास में बैठने का आनंद और अनुभव अलग ही था ।हालाँकि शिष्टाचार और संस्कार हमेशा यहाँ अंतिम साँस गिन रहे होते थे। सामाजिक रुतबा, दायित्वों और मर्यादाओं की अर्थी यहीं से निकल कर हॉल किसी कोने में पड़ी मिलती थी। अपर के शोर-शराबें से बालकनी वर्ग वाले को हमेशा परेशानी होती थी फिर टिकट पर लगे पैसे का ख़याल आता था और वे ध्यानमग्न होकर केवल और केवल फ़िल्म का आनंद लेने लग जाते थे। वे उस मेहमान की तरह सिनेमा देखने आते थे जैसे किसी शादी-बारात में गए कोई सज्जन ने दूल्हा-दुल्हन को लिफ़ाफ़ा थमाने के बाद अपनी सामाजिक प्रथा के अनुसार खाने के टेबल की ओर दौड़ लगा दी हो। जिन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नही पड़ता कि विवाद हो , शादी हो या न हो वे तो खाना खाएँगे ही क्यूँकि अभी-अभी उन्होंने काउंटर पर इसका पेमेंट कर दिया है ।
वैसे क़िस्से कहानियाँ कई है पर आज उन मुद्दों पर प्रकाश डाला गया है जो प्रत्यक्ष रूप से हमारे मनोरंजन को प्रभावित कर रह है। ख़ैर बदलते परिवेश में ये बदलाव भी स्वीकार करना होगा। और आलीशान मल्टीप्लेक्स में जर्जर होती टॉकीज़ की याद को ज़िंदा रखना होगा।

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लेखक:गजेंद्र साहू (विकी)

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