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सरकारी कर्मचारियों की पेंशन बंद पर माननीय का प्रिवीपर्स चालू

पेंशन बंद करने वाले जनप्रतिनिधियों का अपने लिए अलग मापदंड क्यों?

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Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:
जब देश आजाद हुआ तो देश की पांच सौ से ज्यादा रियासतों का विलय एक बहुत बडी चुनौती थी । तत्कालीन गृहमंत्री लौहपुरुष ने इन लोगों के साथ समझौता कर एक निश्चित राशि प्रिवीपर्स के नाम से देकर इनको विलय के लिए राजी कर लिया। पर समाजवाद जोरो से चला और राजनीति के तहत प्रिवीपर्स को देश पर बोझ के नाम से बंद कर दिया गया । राजाओ ने सर्वोच्च न्यायालय में शरण ली और उनके हक मे फैसला भी आ गया, पर प्रिवीपर्स को कानूनी रूप से ही खत्म कर दिया गया । मामला सही है या गलत है, अब वो बात खत्म हो गई । सरकार ने वादा किया पर दूसरे सरकार ने खत्म कर दिया,इसे सिर्फ वादा खिलाफी ही कहा जा सकता है । प्रिवीपर्स के इस घटनाक्रम के बाद शासकीय कर्मचारी हाशिये पर आ गये ।

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सामाजिक सुरक्षा के नाम से जो पारिवारिक पेंशन का प्रावधान था,सन दो हजार चार मे इसे भी खत्म कर दिया गया। अब करीब 17 साल मे जो भी नियुक्तियां हो रही है वो बगैर पेंशन के! इसे भी माननीयो ने देश पर बोझ को हल्का करने के नाम से बंद कर दिया गया । अब दो हजार चार के पहले जिनकी पात्रता थी बस वही लोग बचे है । पर आज के समय, इतने साल नौकरी करने के बाद, जो एक पेंशन की सुविधा थी, उससे लोग वंचित हो गये । ज्यादा मार मध्यमवर्गीय लोगों को ही पड़ी ।

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अब समय ऐसा है कि प्राइवेट नौकरी और शासकीय सेवा मे फर्क नहीं रह गया है। एक अनिश्चितता शुरू मे लगी पर फिर वो नौकरी का हिस्सा बन गई। खैर हमारे देशहित पर इतना सोचने वाले नेताओं ने सही मे देश का भला ही कर दिया ।

जिस पांच सौ से ज्यादा रियासतें इनके आंखो मे खटकती थी उतनी रियासतें या उससे ज्यादा इन लोगों ने हर जगह ही बनवा दी । देश के बड़े प्रदेशों मे विधानसभा के साथ बड़ी चतुराई से विधान परिषद का निर्माण कर, खुलेआम जनप्रतिनिधियों का इजाफा ही कर दिया । आज किसी भी बड़े प्रदेश में पांच सौ से ज्यादा आज के जनप्रतिनिधि या नरेश लोग काम करते हैं।  राजाओ के इसमे कोई रिटायरमेंट का प्रावधान नहीं था, रियासते उतनी ही रहनी थी । पर यहां पूर्व नरेशों(जनप्रतिनिधियों) की बाढ़ सी आ गई ।

अगर तत्कालीन और पूर्व नरेशों के पेंशन सुविधा पर नजर डालें तो पता चलता है कि देश का एक बहुत बडा बजट इन पर जाया हो जाता है । इन्हे हवाई यात्रा, रेल यात्रा, फिर मोबाइल सुविधा,उस पर एक सहायक और क्या चाहिए! लोगों का अनुमान है कि इनकी संख्या पांच हजार से भी ज्यादा है।  जब कोई आदमी अपनी ताउम्र सेवा कर दे फिर वह वहा से खाली हाथ निकले वह कहलाता है शासकीय सेवक, वह भी बिना पेंशन के !!

दूसरी तरफ वो है जो अपने को लोकसेवक कहलाने में गर्व महसूस करते है । यह लोकसेवक सिर्फ पांच साल के लिए आते है और उम्र भर के पेंशन के हकदार होते है । ये लोकसेवक अपनी अंतरात्मा से पूछे कि क्या ये इसके हकदार है ? कुछ जनप्रतिनिधि तो पांच साल तक विधायिका मे खामोशी अख्तियार किये रहते है । कई बार तो जनता भी अपने जनप्रतिनिधियों से इतनी कभी नाराज हो जाती है कि उनके लापता होने के पोस्टर चौक चौराहे पर लगाने के समाचार भी आ जाते है ।

अबतो संसद मे, विधानसभा मे एक दूसरे पर खुल्लम खुल्ला एक दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाना एक आम बात है । क्या भ्रष्टाचार के आरोप को ढोने वाले पेंशन लेने के योग्यता रखते है ? कुछ लोग हत्या के मामले मे जेल के अंदर है, पर माननीय इसके बाद भी पेंशन की योग्यता रखते है! वहीं तब और हैरानी होती है जब अलग अलग जगह पर जैसे कोई विधायक है फिर सांसद है तो दोनों पेंशन की प्राथमिकता कैसे हो सकती है ?

मैं हैरान हूँ । सब लोगों की पेंशन बंद करने वाले इन जनप्रतिनिधियों का अपने लिए अलग मापदंड क्या इनके चरित्र के दोहरेपन को नही प्रदर्शित करता है?  अच्छा होता ये सेवाभावी पहले अपनी पेंशन को बंद करने को कहते पर ये ऐसा कतई नहीं करेंगे। वहीं भाजपा का सबसे बड़ा नारा यह जो स्व.श्यामाप्रसाद मुखर्जी के समय का नारा था, जो आज भी है ।
” एक निशान एक पहचान एक विधान ” 
तीन तलाक़, तीन सौ सत्तर धारा को हटाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना निश्चय दिखा दिया है। परंतु लोक सेवकों के पेंशन निश्चित रूप से एक विधान को ठेंगा दिखाने का काम कर रहे हैं।  निश्चित ही लोगों को यह बात चुभती है कि ये लोग अपनी पेंशन यानि प्रिवीपर्स को बरकरार रखे हुए हैं । ऐसा कर इन्होंने यह तो दिखा ही दिया कि ये पहले अपने बारे मे सोचते है ।

जरूर यह मुद्दा बनना चाहिए, क्योकि इस मामले में इनके कितने भी राजनीतिक विरोध हो, भले एक दूसरे को फूटी आंख न सुहाते हो, पर जब यह मुद्दा आएगा, ये माननीय लोग एक हो जाऐंगे , संगठित हो जाऐंगे। देश ने पहले भी देखा है। इनके भत्तों की वृद्धि बगैर किसी चर्चा के पास हो जाते है ।  लोग तब अपने को ठगा महसूस करते थे जब सौ रूपये का डोसा यह लोग सांसद कैंटीन मे मात्र बारह रूपये मे खाते थे। अभी जाकर मोदी जी ने बाजार मूल्य पर लाया है । मोदी जी इस पर भी गौर करेंगे कि लाखों रूपये के चुनाव लड़ने वाला और जनप्रतिनिधि बनने के बाद पेंशन का हकदार क्यो बने, कैसे बने? क्योकि लाखों रूपये तो चुनाव मे खर्च करने की हैसियत रखता है फिर ऐसे लखपति को पेंशन की क्या आवश्यकता ? 

जिन लोगों पर अपराधिक, आर्थिक, चारित्रिक आदि का आरोप लगा हुआ है, या ये एक दूसरे पर लगाये, जो पूरा देश देख रहा है, ऐसे में इनका पेंशन की पात्रता रखना निश्चित ही जनता के साथ राजनीतिक अट्टहास से ज्यादा कुछ नहीं है । अब यह पोस्ट जनता के विवेक पर छोड़ता हूँ । बस इतना ही। 
लेखक:डा.चंद्रकांत रामचन्द्र वाघ-अभनपूर(ये लेखक के अपने विचार हैं)  

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