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अपने मौन से राहुल गांधी को आईना दिखा गए हैं प्रणब दा

Analysis of The Presidential Years.

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Positive India:Satish Chandra Mishra:
अपने मौन से राहुल गांधी को आईना दिखा गए हैं प्रणब दा.🤔
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की किताब द प्रेसीडेंशियल ईयर्स कल प्रकाशित हो गई। अपनी किताब में दिवंगत राष्ट्रपति ने जो कुछ भी लिखा है उस पर चर्चा कल से ही शुरू हो गयी है। ऐसी चर्चाएं अभी बहुत लम्बे समय तक चलेंगी… शायद कई वर्षों तक या फिर कई दशकों तक।
लेकिन मेरी दृष्टि में प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में जो कुछ भी लिखा है, उससे बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण वह है जो उन्होंने अपनी किताब में नहीं लिखा है।
पुस्तक अभी मैंने भी नहीं पढ़ी है लेकिन उसकी जितनी समीक्षाएं पढ़ी हैं उनसे यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी तथा कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं का तो उल्लेख किया है लेकिन राहुल गांधी का कोई उल्लेख नहीं किया है। अपनी किताब के माध्यम से प्रणब मुखर्जी यह अत्यन्त महत्वपूर्ण, गम्भीर लेकिन मौन सन्देश दे गए हैं।
अपने इस मौन के द्वारा वो राहुल गांधी की राजनीतिक समझ और क्षमताओं पर गम्भीर प्रश्न चिन्ह लगा गए हैं। अपनी किताब में उन्होंने यदि राहुल गांधी की राजनीतिक आलोचना की होती तो मेरे लिए वह उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं होती जितना महत्त्वपूर्ण उनके द्वारा राहुल गांधी के नाम तक का उल्लेख नहीं किया जाना है। राजनीतिक पंडित इसकी गम्भीरता को भलीभांति समझ रहे होंगे।
प्रणब दा जिस कांग्रेस पार्टी में लगभग 5 दशकों तक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे उस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का अपनी अंतिम किताब में कोई उल्लेख तक नहीं कर के प्रणब दा यह संदेश दे गए हैं कि उनकी दृष्टि में राहुल गांधी की क्या स्थिति रही है ? सम्भवतः राहुल गांधी के विषय में उनकी जो धारणा या विचार रहे हों उस सच को सार्वजनिक नहीं करने का निर्णय उन्होंने लिया हो। क्योंकि चाटुकारिता से सदा दूर रहे प्रणब दा झूठ लिख नहीं सकते थे। यही कारण है कि आने वाले दिनों में सोनिया और मनमोहन के लिए कई बड़े सवाल उछालेगी उनकी किताब। ऐसे संकेत मिल भी रहे हैं। शायद इसीलिए उन्होंने राहुल गांधी पर मौन साधना ही बेहतर समझा। इसका कारण क्या है।? इस सवाल का ज़वाब प्रणब दा अपने साथ लेकर चले गए हैं। राजनीतिक विश्लेषकों और आलोचकों ने भी प्रणब दा की किताब के इस पक्ष पर अभी ध्यान नहीं दिया है।
उल्लेखनीय है कि जिस राजनीतिक दल के बहुत लम्बे स्वर्णिम युग के प्रणब दा साक्षी रहे थे उसी राजनीतिक दल को उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दौर में अपनी आंखों से अकल्पनीय अवनति के निम्नतम स्तर पर पहुंचते हुए देखा। दल की इस अवनति के सबसे बड़े और अकेले जिम्मेदार के संबंध में अपनी कोई राय देने के बजाय प्रणब दा द्वारा साधा गया मौन बहुत कुछ कह रहा है। अपने मौन के द्वारा वो यह जता कर गए हैं कि यह व्यक्ति इस योग्य ही नहीं है कि प्रणब दा सरीखा विराट राजनीतिक व्यक्तित्व उस पर कोई टिप्पणी करे। यह स्थिति किसी व्यक्ति के प्रति भयानक क्रोध, घृणा, उपेक्षा और तिरस्कार की पराकाष्ठा की परिचायक होती है। हालांकि चमचों और चाटुकारों के भयानक संक्रमण के सबसे घातक दौर से गुजर रही कांग्रेस के मीडियाई और राजनीतिक कठपुतले अब प्रणब दा को संघी साम्प्रदायिक और ना जाने क्या क्या घोषित करने में जुट जाएंगे। लेकिन लगभग आधी सदी तक भारतीय राजनीति का चर्चित महत्त्वपूर्ण और सम्मानित चेहरा रहे प्रणब दा के उपरोक्त मौन सन्देश की उपेक्षा कर के उन पर ही प्रहार करने की यह रणनीति कांग्रेस के लिए अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान सिद्ध होगी।
मुझे आशा है कि निकट भविष्य में ही मेरे इस कथन की पुष्टि शीघ्र ही हो जाएगी। तब तक प्रतीक्षा करिए।
साभार:सतीश चंद्र मिश्रा-एफबी(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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