Positive India:Dayanand Pandey:
जो लोग साहित्य में भी आरक्षण की ही तलब रखते हैं, उन से कोई विमर्श करना दीवार में सिर मारना होता है । तो दीवार में सिर मारने से बचिए दोस्तों । बाक़ी पुरस्कार, यात्रा आदि-इत्यादि सभी के सभी जुगाड़, पसंद और किस्मत की बात होते हैं । साहित्य अकादमी हो, बुकर हो, नोबुल हो या कोई और भी पुरस्कार । किसी भी पुरस्कार का तर्क , तथ्य या पठनीयता से कोई लेना देना नहीं होता । बहुत से बड़े और पठनीय लेखकों को पुरस्कार से वंचित पाया है । तो बहुत से पुरस्कृत लोग खोजे नहीं मिलते । जाने कहां बिला गए ।
सोचिए कि नामवर सिंह को साहित्य अकादमी पहले मिल गया और उन के गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी को उन से दो साल बाद । विष्णु प्रभाकर को आवारा मसीहा पर जब साहित्य अकादमी नहीं मिला तो साहित्य अकादमी को चुनौती देते हुए मुद्राराक्षस ने एक रुपए का पुरस्कार समारोह आयोजित किया जिस में देश भर से लोग अपने खर्च पर दिल्ली पहुंचे । ऐसे बहुतेरे किस्से और बहुतेरे लोग हैं । अब यह पिछड़ों , दलितों के साहित्य में भी आरक्षण की तलब भी गज़ब है । इन सब चीजों का कोई मतलब नहीं है । असल तत्व है पठनीयता और पाठक । कबीर और तुलसी में ताकत है तभी आज तक हमारे बीच उपस्थित हैं । आगे भी रहेंगे । इस लिए नहीं कि ब्राह्मण थे , दलित थे , हिंदू थे कि मुसलमान थे । सत्य यह है कि रचा ही बचा रह जाता है । दलित-फलित की लफ्फाजी और फतवा आदि-इत्यादि नहीं । चिढ़ , जहर और नफ़रत नहीं । तुलसी को तो अकबर नवरत्न बनाना चाहता था , जिसे उन्हों ने अपनी आर्थिक विपन्नता , दरिद्रता के बावजूद बड़ी विनम्रता से ठुकरा दिया था । तो क्या वह समाप्त हो गए । तुलसी से बड़ा कवि आज भी दुनिया में कोई दूसरा नहीं है ।
साभार:दयानंद पान्डे ।