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क्या मैं अब भी सहनशील बना रहूं ?

राही की एक झकझोरती हुई कविता।

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Positive India:Rajesh Jain Rahi:

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क्षमा,दया ,करुणा का पाठ,
पढ़ाया गया,
मुझे बचपन में।
विद्यालय में सहपाठियों ने,
मुझसे बत्तमीजी की कभी-कभी,
मगर इस पाठ के कारण,
मैं चुपचाप सह गया।

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मुझे त्याग,अपरिग्रह का पाठ,
पढ़ाया गया युवा होने पर।
मुझे मेरे हक से वंचित किया गया,
कई बार अपनों के द्वारा भी,
मगर इस पाठ के कारण,
मैं कुछ न कह सका।

मुझे धार्मिक सहिष्णुता का पाठ,
पढ़ाया गया,
थोड़ा परिपक्व होने पर।
ओह्ह, मेरे सम्मुख ही कट गए,
चित्कार करते हुए निरीह पशु,
मगर मैं इस पाठ के कारण खामोश ही रहा।

मुझे मातृभूमि से प्यार करना,
सिखाया गया माता-पिता एवं गुरुओं के द्वारा।
मगर मुझे अन्याय के खिलाफ लड़ना
किसी ने नहीं सिखाया।
तलवार तो क्या,
मैं लाठी चलाना भी नहीं सीख सका।

मैं सहनशील बना रहा,
मेरी सहनशीलता ने छीन लिया,
मुझसे मेरा बचपन,
मेरा यौवन, मेरा धर्म।
अब मातृभूमि पर भी बन आई है।
मैं मातृभूमि की व्यथा,
खुलकर बता भी नहीं सकता।
मुझे लोगों के द्वारा
अपने साम्प्रदायिक घोषित किये जाने का डर है।

क्या मैं अब भी सहनशील बना रहूं ?
लूटने दूं अपनी मातृभूमि को ?
बताइए मैं क्या करूं ?

लेखक:कवि राजेश जैन राही, रायपुर

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