www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

तुम हमारे इतवार क्यों हो?

कनक तिवारी का सुभाषचंद्र बोस के बलिदान दिवस पर विशेष आलेख।

Ad 1

Positive India:Kanak Tiwari:
18 अगस्त भारतीय युवाओं के सिरमौर नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बलिदान का दिन है। इस साल यह दिन इतवार को है। अग्निमय नायक सुभाष बोस आज़ादी के आंदोलन की कड़ियल छाती का लावा हैं। ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा‘ और ‘गुलामी के घी से आजादी की घास बेहतर है‘ जैसे पौरुषपूर्ण नारों के साथ सुभाष बाबू चुनौतीपूर्ण मुद्रा में थे। तरुणाई ने स्वतंत्रता आन्दोलन में मध्यप्रदेश की त्रिपुरी में 1939 में अपना मुकाम पाया था। सदाबहार नौजवान ने गांधी के प्रतिनिधि पट्टाभि सीतारामैया को कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में मुकम्मिल तौर पर परास्त किया था। बीमार सुभाष तक को देखकर अच्छे अच्छे सूरमाओं को बुखार चढ़ता था।

Gatiman Ad Inside News Ad

कालजयी नायक सुभाष को केन्द्रीय भूमिका से बेदखल कर हाशिए पर खड़ा कर दिया गया। कोलकाता के एल्गिन रोड स्थित सुभाष-स्मृति केन्द्र में इतिहास गर्म सांसें लेता राज्य और केन्द्र सरकारों की उपेक्षा के कारण नवयुवकों को ललकारता है। जिस चरित्र की आग से कलंक की कालिखें भस्म होती रहीं। वह आत्मा-केन्द्र अशेष जननेता के यश के स्तर का नहीं है। सुभाष बोस जैसा भूकम्प पारम्परिक इतिहासकारों और राजनेताओं की जड़ता को हिला नहीं पाता। उन पर ‘जापानियों का एजेन्ट‘ और ‘तोजो का कुत्ता‘ जैसी फब्तियां कसी गईं। चरित्र पर लांछन लगाए गए। त्रिपुरी में भी उनकी स्मृति का सम्मानजनक रखरखाव नहीं है।

Naryana Health Ad

सुभाष बोस जनशताब्दी में मैंने उनके द्वारा स्थापित आजाद हिंद फौज के कौमी तरानों का एक श्रव्य कैसेट भोपाल में मूल धुनों के आज़ाद हिन्द फौजियों से तैयार कराया। उनकी आंखों में आंसू छलक उठे। उसमें सुभाष बाबू का ओजमय आह्वान भी दर्ज है। सुभाष की देन गिरे टूटे भारतवासियों के मनोबल में पौरुष भरना था। देश की तरुणाई को उन्होंने मातृभूमि की बलिवेदी पर मर मिटने की हुंकार लगाई। लगा जैसे पुराणों के पन्नों में जान पड़ गई हो। लगा जैसे हमारे विद्रोही संतों की आत्मा का स्वर उनके कंठ के पर्तों को चीरकर समा गया हो। लगा जैसे दुर्गा सप्तशती की विद्रोहिणी भाषा बीसवीं शताब्दी का इतिहास बदल देने गरज उठी हो।

एक गुलाम, दहशतजदा कौम की धमनियों में लावा भरना असम्भव कार्य था। वह भी सुभाष ने कर दिखाया। उनका ‘दिल्ली चलो‘ का नारा फिजा में ‘इन्कलाब जिन्दाबाद‘ की तरह गूंजता रहा है। उनका यश हर भारतीय के लिए संचित निधि की पूंजी है। उसके ब्याज से ही पीढ़ियों का चेहरा उजला होता रहेगा।

सुभाष बोस आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर श्रेष्ठ नौकरशाह बन सकते थे लेकिन अंगरेजों का रबर स्टाम्प बनना मंजूर नहीं किया। काजी नजरुल इस्लाम के धर्मनिरपेक्ष छंद, रवीन्द्र संगीत और विवेकानन्द के शौर्य के साथ सुभाष बोस का आह्वान बंगाल के मार्फत भारत का जीवन स्पन्दन है। गांधी से असहमति के बावजूद आजाद हिन्द फौज में ‘गांधी ब्रिगेड‘ नाम रखना उदार नेता ने किया। उनके सहायक कर्नल गुरदयाल सिंह ढिल्लन और कैप्टेन लक्ष्मी सहगल सहित कई सैनिकों का सम्मान समारोह मैंने आयोजित किया था। उन सबकी आंखों में सुभाष बाबू की चमक हमें दिखी थी। बड़प्पन के बावजूद सुभाष बोस देश की सक्रिय जिन्दगी का सोमवार से शनिवार अर्थात् जीवित एजेण्डा नहीं बनाए गए। वे अपने जन्मदिन और पुण्यतिथि पर बमुश्किल याद किए जाने के मोहताज हैं।

‘नेताजी‘ जनवादी सम्बोधन है। लोकतांत्रिक, संवैधानिक और जनपदीय अभिव्यक्ति है। केन्द्र और राज्य सरकारें अभियुक्त भाव से नेताजी का स्मरण करती हैं। कालजयी समाज विचारक का दर्शन बूझे बिना नेताजी के रूमानी एडवेंचर और खाकी सैनिक वर्दी में लैस क्रांतिकारी की तरह उनकी छवि प्रचारित होते रहने में नेताजी का ज्यादा नुकसान है। संदेहास्पद स्थितियों में हुई उनकी मृत्यु को खूब भंजाया गया। उन्हें मिथकों, रहस्यों और किंवदन्तियों का चरित्र बनाकर भारतीय पत्रकारिता सनसनी फैलाती रही। वह गवेषणात्मक दृष्टि खो दी जो नेताजी के यश से ज्यादा उनके विचारों को संविधान, प्रशासन और राजनीति के लिए कारगर बनाती। सुभाष बोस इतिहास निर्माता थे। उनके योगदान को जांचने पश्चिमी या प्रगतिशील चश्मे की जरूरत नहीं है। सुभाष बाबू को दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों की काठी पर भी नहीं चढ़ाया जा सकता। इस महान जननायक में भारत ही भारत कुलबुलाता था। जर्मनी और जापान तक का उनका सफल यश आर्य नस्लवाद या एशियाई मुल्कों की एकजुटता के लिए नहीं था। उन्होंने रूस और चीन से कोई मदद नहीं ली। सुभाष बाबू केवल भारत को आजाद कराने के मिशन पर अपना जीवन होम करते रहे। उनकी यही केन्द्रीय चिन्ता थी।

केन्द्रीय और प्रादेशिक सरकारों के पाठ्यक्रम में सुभाष बाबू की हिस्सेदारी कहां है? सुभाष बोस, भगतसिंह, मानवेन्द्रनाथ राय, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, मदनमोहन मालवीय, राजगोपालाचारी, लोकमान्य तिलक, अरविन्द घोष जैसे प्रखर बुद्धिजीवी राजनीतिक पार्टियों की फिक्स्ड डिपाॅजिट पूंजी नहीं हैं। पार्टियों को स्पष्ट करना होगा वे किसके कितने विचारों का समर्थन या आचरण कर सकती हैं? महापुरुष तस्वीर होकर उन पर फूल चढ़ाए जाने के लिए जन्म नहीं लेते। उनके विचारों की स्याही किसी देश का भाग्य-लेख नहीं लिख सकती। तो महानता का अर्थ क्या है? अवाम के लिए वे मरे, खपे। उसे यह जानने का अधिकार क्यों नहीं है कि उनके विचारों पर अमल क्यों नहीं हो रहा है? सुभाष बोस बिजली या बैटरी से यंत्रचालित झुनझुना नहीं हैं जिसे बजाने का काम प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य लोग करें और देश केवल देखता रहे।

भारत में पैदा होना सुभाष बाबू का नसीब या संयोग था। भारत के लिए मर जाना उनका फैसला था। मरते मरते बचे शिशु सुभाष की एक कथा के अनुसार स्वामी विवेकानन्द का आभास उनको उनके आंगन तक हुआ था। अपनी आभा उन्होंने सुभाष के जीवन पर उलीच दी थी। सुभाष बोस के यश का प्रचार उनके वंशजों को करना पड़ रहा है। सरकारों के बजट का हजारों करोड़ रुपया दागी मंत्रियों के विज्ञापन देने में खर्च होता है। इतिहास के कीड़े मकोड़े भी महत्वाकांक्षी होते हैं। स्कूली बच्चों के बीच राष्ट्रनायकों की किताबें क्यों नहीं मुफ्त वितरित की जा सकतीं? इससे उनमें अपना निजी पुस्तकालय भी विकसित कर पढ़ने की वृत्ति पैदा होगी। बेहूदे सरकारी विज्ञापनों पर लोक-सेंसर लगा दिया जाए। स्वतंत्रता के सिपाहियों का उद्बोधन इक्कीसवीं सदी देश को सौगात के रूप में सौंप तो सकती है।

साभार: कनक तिवारी(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Horizontal Banner 3
Leave A Reply

Your email address will not be published.