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‘भारत छोड़ो दिवस‘ पर कनक तिवारी का विशेष आलेख

भारतीयों, इंग्लैंड छोड़ो!

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Positive India:Kanak Tiwari:
“भारत छोड़ो दिवस”
9 अगस्त 1942 भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का है। मुंबई (तब बंबई) कांग्रेस में महात्मा गांधी के ‘करेंगे‘ या मरेंगे‘ और ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो‘ जैसे नारों ने देष के अवाम की धमनियों में तेज़ाब भरा। 1942 का आंदोलन पूरी तौर पर अहिंसक भी नहीं कहा जा सकता। देष के कई हिस्सों में छिटपुट हिंसा की घटनाएं हुईं। विशेषकर आदिवासी इलाके में अंगरेज पुलिस की गोलीबारी के कई कुकृत्य सामने आए। राजनीतिक आंदोलन का आग्रह था कि अंगरेज भारत छोड़कर चले जाएं। अंग्रेजियत को लेकर भारतीय नेता भ्रम में थे। केवल गांधी कहते थे अंगरेज भले रह जाएं अंगरेजियत चली जाए। ‘हिन्द स्वराज‘ में 39 वर्षीय बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने साफ कहा था ‘‘हमें बाघ से कोई परहेज नहीं है, लेकिन लोक जीवन में उसका स्वभाव नहीं चाहिए।‘‘

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नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष बोस, मौलाना आज़ाद और राजेन्द्र प्रसाद भी इस मामले में पूरी तौर पर गांधी के साथ खड़े नहीं दिखे। आम जनता में यह कसैला फिकरा लोग उच्चारते थूकते रहते हैं कि अंगरेज चले गए, औलाद छोड़ गए। गांधी ने ऐलान किया था अंगरेजी संसद भारत के लिए मौजूं नहीं है। उसमें लोकतंत्र की धड़कन नहीं है। वह प्रधानमंत्री के इषारे पर नाचने लगती है। गांधी ने वेस्टमिन्स्टर प्रणाली की राजनीतिक, प्रशासनिक व्यवस्था का बिरवा भारत में रोपे जाने का विरोध किया था।

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भारतीय संसद और न्यायपालिका अंगरेजी संस्थाओं की नकलें हैं। संविधान भारत की धरती में रोपा गया अंगरेजी तेवर है। कोशिश की गई कहीं कहीं हिन्दुस्तानी नस्ल का भी दिखे। उसमें अंगरेजों के ज्यादा शैतान वंशज अमेरिकीयों के न्यायिक ज्ञान की छौंक लगाई गई। उसे संविधान की भाषा में मूल अधिकार कहते हैं। इन मूल अधिकारों को पाने अंगरेजी नस्ल की याचिकाएं लगाई जा सकती हैं। छोटे से देश इंग्लैंड की यह ढकोसला पद्धति संविधान की सबसे कारगर प्रणाली के रूप में लिख दी गई। करोड़ों गरीब उच्च न्यायालय तक महंगी न्याय व्यवस्था के कारण नहीं पहुंच पाते। सुप्रीम कोर्ट जाना तो मध्य वर्ग तक के व्यक्ति के लिए भी असंभव है।

पांडित्यपूर्ण शैली में न्याय पाने की महंगी कोशिशों को पैरवी करना कहा जाता है। एक बड़बोले आदेश को जो लागू ही नहीं हो पाता-न्याय का फतवा कहकर अखबारों और दूरदर्शन की सुर्खियों में प्रचारित किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद देश में सड़कों और सरकारी दफ्तरों में कोई सिगरेट पीना नहीं छोड़ रहा है। न ही गंगा समेत देश की नदियों में प्रदूषण रुक रहा है। न ही सामान्य नागरिक संहिता रची जा रही है। न ही देश गरीब बच्चों की अच्छे स्कूलों में शिक्षा मिलने की कोई जुगत बन पाई है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अपने सरकारी निवास में अपने बच्चों की कंस्ट्रक्षन कंपनी के पंजीबद्ध कार्यालय बताए जाने के आरोप से बच नहीं पाए हैं। न ही कोई कानून बन पाया कि मंत्रिगण, न्यायाधीश और नौकरशाह वैश्विक तथा देशी धनाढ्य कंपनियों के बड़े शेयर होल्डर नहीं बनें।

खान-पान, रहन-सहन और सामाजिक आचरण में अंगरेजियत की सडांध भारतीय माहौल में रच बस गई है। खादी, हथकरघा और स्वदेशी कपड़ों को पहनना सामाजिक जिल्लत है। महंगी शराबें, कीमती पोशाक और बंगलों में कुत्तों की हिफाजत अपने नौकरों से ज्यादा करना अफसरों के नए घिनौने चोचले हैं। आज भी लंदन में इतवार के दिन प्रधानमंत्री के सरकारी निवास 10 डाउनिंग स्ट्रीट में नौकरचाकर की वैसी फौज नहीं आती है। जैसी कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों के बंगले में खुलेआम दिखाई पड़ती है। ‘साहब‘ नाम का शब्द अंगरेज छोड़ गया। सरकारी पत्राचार में कलेक्टर साहब, कमिश्नर साहब और कप्तान साहब लिखने की परंपरा शिलालेख की तरह हो गई है। वह लाल फीताशाही लाखों, करोड़ों गरीबों और मुफलिसों की जिन्दगियों को जिबह कर रही है। गांधी जी ने वकीलों को व्यवस्था का दलाल कहा था। क्या आज यह सच नहीं है? यही कटाक्ष उन्होंने न्यायाधीशों के लिए किया था। उच्च न्यायालयों में अंगरेजी बोलने का संवैधानिक आदेश भारतीय जनजीवन और न्यायाधीषों की जुबान में लड़खड़ा रहा है। अंगरेज भारतीय डाॅक्टरों में अपने पिशाच की आत्मा भी छोड़ गया है। गांधी कहते थे कि डाॅक्टर मरी हुई आत्माओं और लाशों के सौदागर हैं। क्या देश के बढ़ते अस्पतालों में गरीब आदमी को लूटते डाॅक्टरों की हविश में यही सब नहीं देखा जा रहा है?

अंगरेज चला गया लेकिन नहीं गया है। लोग ‘ओल्डहोम‘ में अपने मां बाप को ठूंसकर अपनी पत्नी और नाबालिग बच्चों को अपना परिवार समझते हैं। उन्हे रक्षाबंधन, भाई दूज, अक्षय तृतीया और संतान सप्तमी जैसे त्योहारों में दिमागी कमजोरी नजर आती है। वे फ्रेन्डशिप दिवस, वेलेन्टाइन डे, बड़ा दिन और न्यू इयर्स डे के साथ भारतीय त्योहारों को समरस नहीं करते। उनके जीवन के नए रोमांच हैं। शबरी को कोई नहीं जानता और होलिका को भी नहीं लेकिन सांताक्लाॅज बनना अब भारतीय टेलीविजन से लेकर घरों में घुसता नया शौक है। अब पेट पास्ता, पेस्ट्री और पिजा खाए बिना नहीं भरता है। भारतीय भोजन के शट्रस और छप्पन व्यंजन इतिहास के शोध का विषय हैं लेकिन ताजा भारत के नहीं। आज भी शराब की बोतलें छलकाते भद्रजन यह बलबलाते रहते हैं ‘बूढ़े जाॅनी वाॅकर में बहुत दम है।‘

अंगरेज में जो अच्छी बातें हैं वह गांधी रखना चाहते थे। यह अंगरेज था जिसने छत्तीसगढ़ में तांदुला जलाशय का निर्माण बिना किसी राजनीति के तकनीकी आधारों पर किया था। इंग्लैंड की जगह यदि फ्रांस, पुर्तगाल या जर्मनी होते तो वे ज्यादा हत्याएं करते और भारतीय आजादी का दिन मुल्तवी भी हो सकता था। यह अंगरेज थे जिन्होंने संस्कृत के पुराने वैभव का पूरी दुनिया में प्रचार किया। उन्होंने अंगरेजी नामक भाषा दी जो राजनीतिक बदनीयती के चलते हिन्दी को तबाह कर रही है। गांधी अंगरेज के गुणों के ग्राहक थे। इसलिए ‘भारत छोड़ो‘ का उनका अर्थ अंगरेज देह नहीं अंगरेज आत्मा को छोड़ देने का था। गोरे अंगरेज चले गए लेकिन उनके काले दुर्गुण वे गेहुंए भारतीयों को उत्तराधिकार में सौंप गए।
साभार:कनक तिवारी

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