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हिन्दुओं की आस्था ही काफी कि अयोध्या में विवादित स्थल पर ही हुआ था राम का जन्म’

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पॉजिटिव इण्डिया:नयी दिल्ली,8 अगस्त ;
(भाषा) राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में बुधवार को उच्चतम न्यायालय में दलील दी गयी कि करोड़ों श्रद्धालुओं की ‘अटूट आस्था’ ही यह साबित करने के लिये पर्याप्त है कि अयोध्या में समूचा विवादित स्थल ही भगवान राम का जन्म स्थान है।
शीर्ष अदालत ने जोर देकर कहा कि अयोध्या में 2.77 एकड़ विवादित भूमि पर कब्जा होने संबंधी हिन्दू पक्षकारों का दावा साबित करने के लिये राजस्व रिकार्ड, अन्य दस्तावेज और मौखिक दस्तावेज ‘बहुत ही महत्वपूर्ण साक्ष्य’ होंगे।
इस विवाद में एक पक्षकार ‘राम लला विराजमान’ की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता के. परासरन ने कहा कि राम जन्मभूमि अपने आप में ही हिन्दुओं के लिये मूर्ति का आदर्श और पूजा का स्थान हो गया है। उन्होंने पीठ से जानना चाहा कि इतनी सदियों के बाद इस स्थान पर ही भगवान राम का जन्म होने के बारे में सबूत कैसे पेश किया जा सकता है।
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष बहस करते हुये परासरन ने सवाल किया,‘इतनी सदियों के बाद हम यह कैसे साबित करेंगे कि भगवान राम का जन्म यहां हुआ था।’’
पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर शामिल हैं।
परासरन ने कहा,‘करोड़ों उपासना करने वालों और श्रद्धालुओं की अटूट आस्था अपने आप में इस बात का साक्ष्य है कि यह स्थान ही भगवान राम का जन्म स्थान है।’ उन्होंने कहा कि वाल्मीकि रामायण में भी इस बात का उल्लेख है कि भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था।
संविधान पीठ ने परासरन से सवाल किया कि क्या पहले कभी इस तरह के किसी धार्मिक व्यक्तित्व के जन्म के बारे में किसी अदालत में ऐसा कोई सवाल उठा था।
पीठ ने पूछा,‘क्या बेथलेहम में ईसा मसीह के जन्म जैसा विषय दुनिया की किसी अदालत में उठा और उस पर विचार किया गया।’ इस पर परासरन ने कहा कि वह इसका अध्ययन करके न्यायालय को सूचित करेंगे।
परासरन ने अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 में विध्ंवस की घटना से सालों पहले विवादित ढांचे के भीतर मूर्तियां रखे जाने से संबंधित अनेक सवालों के जवाब दिये। उन्होंने कहा कि मूर्तियों का रखना सही था या गलत, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि यह ढांचा मंदिर था या मस्जिद।
उन्होंने कहा,‘यदि यह गलत (मूर्तियां रखना) था, यह मान लिया जाये कि ऐसा करना लगातार गलत था तो यह सतत गलती उस समय खत्म हो गयी जब अदालत ने हस्तक्षेप किया और एक रिसीवर नियुक्त कर दिया। अदालत के आदेश पर रिसीवर द्वारा संपत्ति अपने कब्जे में रखना सतत गलती नहीं हो सकता।’परासरन ने कहा कि विवादित ढांचे के मंदिर या मस्जिद होने के बारे में सिर्फ इस आधार पर ही फैसला हो सकता है कि वहां कौन पूजा करता था। उन्होंने दलील दी कि मूर्तियां आज भी वहां विराजमान हैं।
उन्होंने कहा,‘भीतरी बरामदा या बाहरी बरामदा प्रासंगिक नहीं है। हम कहते हैं कि पूरा क्षेत्र ही रामजन्मभूमि है।’
सुनवाई के दौरान जब परासरन ने इस बात पर जोर दिया कि सारा क्षेत्र ही भगवान राम का जन्म स्थल है तो पीठ ने उनसे सवाल किया कि क्या वहां रखी मूर्तियों के प्राचीन होने का परीक्षण किया गया है।
परासरन बृहस्पतिवार को भी बहस जारी रखेंगे।
इससे पहले, इस विवाद में पक्षकार एक अन्य हिन्दू संगठन ‘निर्मोही अखाड़ा’ को न्यायालय के कई मुश्किल सवालों का सामना करना पड़ा। न्यायालय ने उससे जानना चाहा कि विवादित स्थल पर अपना कब्जा साबित करने के लिये क्या उसके पास कोई राजस्व रिकार्ड और मौखिक साक्ष्य है।
पीठ ने निर्मोही अखाड़े की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सुशील जैन से कहा कि चूंकि वह इस समय कब्जे के बिन्दु पर है, इसलिए हिन्दू संस्था को अपना दावा ‘साबित’ करना होगा।
संविधान पीठ ने कहा,अभी, हम कब्जे के मुद्दे पर हैं। आपको अपना कब्जा साबित करना है। यदि आपके पास अपने पक्ष में कोई राजस्व रिकार्ड है तो यह आपके पक्ष में बहुत अच्छा साक्ष्य है।
निर्मोही अखाड़ा विभिन्न आधारों पर विवादित स्थल पर देखभाल करने और मालिकाना हक का दावा कर रहा है। अखाड़ा का कहना है कि यह स्थल प्राचीन काल से ही उसके कब्जे में है और उसकी हैसियत मूर्ति के ‘संरक्षक’ की है।
पीठ ने जैन से सवाल किया,राजस्व रिकार्ड के अलावा आपके पास और क्या साक्ष्य है और कैसे आपने ‘अभिभावक ’ के अधिकार का इस्तेमाल किया। जैन ने इस तथ्य को साबित करने का प्रयास किया कि इस स्थल का कब्जा वापस हासिल करने के लिये हिन्दू संस्था का वाद परिसीमा कानून के तहत वर्जित नहीं है।
जैन ने कहा,यह वाद परिसीमा कानून, 1908 के अनुच्छेद 47 के अंतर्गत आता है। यह संपत्ति दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के तहत मजिस्ट्रेट के कब्जे में थी। परिसीमा की अवधि मजिस्ट्रेट के अंतिम आदेश के बाद शुरू होती है। चूंकि मजिस्ट्रेट ने कोई अंतिम आदेश नहीं दिया है, इसलिए कार्रवाई की वजह जारी है, अत: परिसीमा द्वारा वर्जित होने का कोई सवाल नहीं उठता है।
उन्होंने कहा कि हमारा वाद तो मंदिर की देखभाल के लिये संरक्षक के अधिकार की बहाली का है और इसमें प्रबंधन और मालिकाना अधिकार भी शामिल है। उन्होंने कहा कि 1950 में जब कब्जा लिया गया तो अभिभावक का अधिकार प्रभावित हुआ और इस अधिकार को बहाल करने का अनुरोध कब्जा वापस दिलाने के दायरे में आयेगा।
जैन से कहा कि कब्जा वापस लेने के लिये परिसीमा की अवधि 12 साल है। हमसे कब्जा लेने की घटना 1950 में हुयी। इस मामले में 1959 में वाद दायर किया गया और इस तरह से यह समय सीमा के भीतर है।
निर्मोही अखाड़े ने मंगलवार को इस प्रकरण में बहस शुरू करते हुये कहा था कि 2.77 एकड़ की सारी विवादित भूमि उसके नियंत्रण में थी और 1934 से इस स्थान पर मुसलमानों को प्रवेश की इजाजत नहीं थी।
इन सवाल जवाब के बीच ही पीठ ने जैन को रोकते हुये कहा कि वहां पर अपने कब्जे के दावे के समर्थन में साक्ष्यों के बारे में पूरी तरह तैयारी करके आयें।
पीठ ने कहा, हम जानते हैं कि आप मूल रिकार्ड दिखाने की स्थिति में नहीं है, लेकिन हम जानना चाहते हैं कि क्या इसके लिये लगान अदा किया गया था और इसका भुगतान कौन कर रहा था।
संविधान पीठ अयोध्या में 2.77 एकड़ विवादित भूमि तीनों पक्षकारों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला- के बीच बराबर-बराबर बांटने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सितंबर, 2010 के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर सुनवाई कर रही है। इस विवाद का मध्यस्थता के माध्यम से सर्वमान्य समाधान खोजने के प्रयास विफल होने के बाद संविधान पीठ ने छह अगस्त से सारी अपीलों पर सुनवाई शुरू की है।

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