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एक को चुनना पड़े तो किसे चुना जाए – कनक तिवारी

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रोल माॅडल बहुत कम हो रहे हैं। ज़माना था जब गांधी से बड़ा रोल माॅडल नहीं था। उनके पहले विवेकानन्द अंतर्राष्ट्रीय स्तर के रोल माॅडल, बाद में जवाहरलाल नेहरू, सुभाष बोस और भगतसिंह भी रोल माॅडल। जीवन के कुछ क्षेत्रों में एक व्यक्ति को चुनना पड़े तो किसे चुना जाए। विचारक चुनना पड़े तो डाॅ. राममनोहर लोहिया हैं। लोहिया ने राजनीति, धर्म, संस्कृति, साहित्य, भाषा, लोकतंत्र, गरीबी, समाजवाद जैसे विषयों को समावेशी किया। मनुष्य को विचार के केन्द्र में रखा। दिनमान को पूरे संपादकीय स्टाफ अज्ञेय, विजयदेवनारायण साही, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, ओमप्रकाश दीपक, ओमप्रकाश निर्मल, रघुवंश, अनन्तमूर्ति को मिलाकर प्रेरणा देते रहे।

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साहित्य जीवन की संपूर्णता है और भाषा उसकी अभिव्यक्ति। मुझे जेल हो जाए और केवल एक हिंदी लेखक को पढ़ने मिले। मैं हजारी प्रसाद द्विवेदी को पढ़ूंगा। इस लेखक ने कबीर का पुनराविष्कार किया और भारतीय सामासिक संस्कृति का अग्रदूत बना। फिल्म विधा को लेकर बहुत विवाद है। इस इलाके में जिसे दिलीप कुमार के कीटाणु ने काट खाया हो, उस पर और किसी का नशा चढ़ कहां पाता है। शरतचंद्र यदि होते तो अपने उपन्यास ‘देवदास‘ को यूसुफ भाई को समर्पित कर देते। यही एक फिल्म इस व्यक्ति को अमर बनाने के लिए काफी है। दिलीप कुमार का अभिनय कुदरत की तखलीक का एक करिश्मा है। यही जुमला वे लता मंगेशकर की आवाज़ के लिए वे खुद गढ़ते हैं। मौशिकी का शास्त्रीय ज्ञान होना जरूरी नहीं है। वहां तो आधुनिक तानसेन का नाम है कुंदनलाल सहगल। अकबर ने बीरबल से पूछा था कि हिन्दुओं में किस नदी का पानी सबसे पवित्र समझा जाता है। बीरबल का उत्तर था हुजूर यमुना का जिसके किनारे आप विराजते हैं। अकबर ने पलट वार किया हिंदुओं में तो गंगा का पानी ही सबसे पवित्र समझा जाता है। बीरबल ने भी पलटवार किया हुजूर गंगा का पानी पानी नहीं वह तो अमृत है। लोकप्रिय संगीत में रत अपना जीवन खपाते बाकी गायकों के लिए सम्मान व्यक्त करते हुए मुझे बीरबल सहगल की गंगा के पक्ष में खड़ा नज़र आता है।

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गांधी को फकत राजनेता समझने की भूल नहीं की जाए। तो राजनीति का पहले चमकता अब झिलमिलाता तारा जवाहरलाल नेहरू हैं। मैं पंडित नेहरू में शेक्सपियर के अमर चरित्र हैमलेट को भी देखता हूं और प्राचीन ग्रीक तथा रोमन नायकों को भी। टैगोर ने सबसे मार्के की बात कही थी कि वे भारत के ऋतुराज थे। विनोबा भावे उन्हें अस्थिर युग का सबसे बड़ा स्थितप्रज्ञ मानते थे। चाहे जो हो खिलाड़ी तो कपिलदेव है जो भारत की ग्रामीण अस्मिता से लेकर अंतर्राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया है। उसमें हरियाणवी ग्रामीण अनगढ़ता का शिल्प है। वह बैटिंग भी करता रहा है और बाॅलिंग भी। उसे ऐसे ही मिलेनियम का खिलाड़ी अंग्रेजों ने नहीं बना दिया।

अदाकाराओं में तुलना का कोई सवाल ही नहीं है। बस नरगिस, नरगिस और नरगिस। राजकपूर जैसे महान फिल्मकार को जो प्रेरणा दे। उसके मुकाबले बाकी और नामों पर विचार करने का वक्त नहीं मिलता है। ऐसे थोड़े ही किसी शायर ने लिखा है ‘‘हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।‘‘ जब नरगिस की शादी हुई थी, हम काॅलेज के पहले साल में थे। रेडियो पर खबर सुनकर हमने उस दिन हाॅस्टल में खाना नहीं खाया था। लगा था जैसे सुनीलदत्त ने हम जैसे नवयुवकों का सपना ही छीन लिया था। शायरी की बात चले तो बल्लीमारान के महाबली की कब्रगाह पर बैठे हुए कुत्तों की कसम! एक बार यदि खून में असदुल्ला खां घुस भर जाए तो दुनिया का कोई डाॅक्टर उसका वायरस निकाल नहीं सकता। ग़ालिब कोई शायर नहीं है। वह तो मनुष्य होने की आत्मा है। वह लोहार है जो दिल के लिए रोज एक नया औजार गढ़ता रहता है। उसकी सांसों की धौंकनी में जीवन की आग जलती है। वह भाषा में शायरी कहां करता है। इसके पास वे सब कैप्सूल हैं जिन्हें अपनी मुट्ठी में रखकर पूरी दुनिया को उसमें बंद कर सकते हैं।

लोग चेलापति राव, पराडकर और गणेष शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकारों के नाम बताएंगे मानो उन्हें पूरा पढ़ लिया हो। गाइड बनकर जो समझ और भाषा को परिष्कार देता रहे। वह अनोखा नाम मालवा के बेटे राजेन्द्र माथुर का दिमाग से निकलता ही नहीं है। हिंदी गद्य में साहित्यिक पत्रकारिता और पत्रकारिक साहित्य के लिटमस टेस्ट में नीला रंग कब लाल होता है और लाल रंग कब नीला-यह राजेन्द्र माथुर को पढ़ते पढ़ते अपने दिमाग की परखनली में एक एक बूंद अम्ल-क्षार को डालने से समझ में आता है। यह लेखक जल्दी चला गया अन्यथा पत्रकारिता की विधा दुनिया को समझने का एक और बेहतर और विश्वसनीय तरीका समझी जाती। विधिशास्त्रियों में मैं वी. आर. कृष्ण अय्यर को चुनूंगा। न्यायपालिका जैसे रूढ़तंत्र को आम आदमी की सेवा में इस तरह लगा देना-जैसे मुक्तिबोध कहते थे कि दुनिया को साफ करने के लिए किसी बुद्धिजीवी के बदले एक मेहतर (सफाईकर्मी) चाहिए-वही करिश्मा कृष्ण अय्यर में है। उनके एकाकी रहे दुखी जीवन से सहानुभूति है। फिर भी उसे शतायु होना ही चाहिए का अवसर मिला क्योंकि न्यायपालिका के अंदर उनके जैसी करुणा ही सूखती नज़र आती रही है। काश न्यायाधीशों ने कृष्ण अय्यर को पढ़ा और समझा होता तो सुप्रीम कोर्ट का चेहरा प्राकृतिक रोशनी में दमदमाता रहता। यदि जीवन की तपस्या से एक आत्मा ही मिलनी हो तो पोरबन्दर के दीवान का बेटा अमर है। वह लेकिन मिलता कहां है?

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