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तेरा बयान गांधी!-कनक तिवारी की कलम से

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Positive India:Kanak Tiwari:
गांधी इतिहास की एक असंभव संभावना की तरह धरती पर आये। अब संभव असंभावना बनाए जा रहे हैं। गांधी ने ऐसे बयान किए जो वक्ती तौर पर किसी सिरफिरे के फितूर की तरह बताए गए। वे वाक्य कालजयी होकर वक्त की छाती पर शिलालेख की तरह टंके हैं। इसके बाद भी उनको सत्य की सलीब पर टांगा जा रहा है। गांधी ने कहा था उनके लिए बनारस और गाय वगैरह जैसे पारंपरिक धार्मिक विश्वासी प्रतीक वैज्ञानिक नज़र से देखे जाने चाहिए। गाय की पूंछ पकड़कर पाप की वैतरणी पार करना और उससे मनुष्य मात्र की ज़रूरतों और अनंत क्षुधा को शांत करना समझना भाषायी चमत्कार ज़्यादा है। उससे अर्थमूलक संभावनाएं नहीं झांकतीं। गांधी ने बकरी का दूध पिया। वह संसार में मौलिक प्रयोग था। एक निरीह, उपेक्षित, वंचित और हिंसा की शिकार होती पशु प्रजाति के सन्दर्भ में पारंपरिक बुद्धि का संशोधन करते बकरी के दूध की गुणवत्ता की वैज्ञानिक समझ भी गांधी में थी। सबसे मासूम, घरेलू और निरीह लेकिन जनोपयोगी पशु के प्रति अहसान की भावना के साथ करुणा का कायिक प्रदर्शन भर नहीं था। वह समाज के हर वंचित तबके के प्रति रूढ़िगत दुर्भावना को हटाकर अहसान वृत्ति के बदले सहकार का समास था। यह अद्भुत चमत्कार लगता प्रयोजन साधारण मनुष्यों के जीवन की एक मामूली परिघटना बनाकर सामाजिक क्रांति को हासिल करने का उद्यम था।

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गांधी ने यह लिखा था अपनी संपूर्ण सद्भावना और धर्मगत सुसंगतियों को मानते हुए भी एक वर्ग विशेष के दिगंबर साधुओं के सामाजिक जीवन में प्रत्यक्ष दीखने पर उन्हें नैतिक, मौलिक संदेह है। गांधी की जबर्दस्त मुखालफत की गई। उन्हें मजबूर किया गया अपनी धारणाओं और कथन का खंडन करें। गांधी ने नहीं किया। गांधी का कहना था सांसारिक व्यक्ति सन्यास में दीक्षित धर्म गुरु होकर समाज में वस्त्ररहित विचरण करता है। उसकी कुंठाओं, रूढ़ियों और यौनग्रस्त सोच की पृष्ठभूमि के नष्ट हो जाने की आश्वस्ति कैसे मानी जा सकती है। गांधी का सवाल कबीरदास की शैली में पूछा गया था। देह और दिमाग की सारी समझ, पारदर्शिता और व्यग्रताओं को सन्यास की परिकल्पनाओं से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है। यह बूझने में गांधी ने मनोवैज्ञानिक की भूमिका अदा की।

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गांधी ने पाकिस्तान के सवाल को लेकर हिन्दू मुस्लिम इत्तहाद का सबक सिखाना चाहा। उनके ही पट्ट शिष्यों को नहीं सुहाया। गांधी ने बार बार जिद की आईन बनाने वाली असेंबली में मुसलमानों और बाकी अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी के बगैर कोई कामकाज नहीं होना चाहिए। मुस्लिम लीग और कांग्रेस गांधी की समझ के विरोधी संगठन बन गए थे। कुछ राष्ट्रवादी मुसलमान अलबत्ता उनके साथ रहे। आज उन्हें मुस्लिम विचारों का अधिकृत प्रतिनिधि भी नहीं माना जाता। गांधी ने मुसलमानों से सामासिक रिश्ता नहीं हो पाने पर आजादी का सवाल भी मुल्तवी करने का नायाब सुझाव दिया था। वैचारिक, धार्मिक, सियासी और सांस्कृतिक रूप से खंडित भारत गांधी की आवाज में कराह रहा है। गंगा जमुनी संस्कृति जैसा मुहावरा भी हिन्दू मुस्लिम संबंधों की अंतर्लय को रेखांकित नहीं कर पाता। संगम वह जगह है जहां से विकसित विचारों की सामासिक नदी विश्वास और भविष्य के अनंत महासागर में जाने के लिए बहना शुरू करती है। बापू होते तो घर वापसी, लव जेहाद, हम पांच हमारे पच्चीस, खाप पंचायत वगैरह के नारे पनाह मांगते।

हम अमेरिका की गुलामी करने वाले संसार के सबसे बड़े देश हैं। राष्ट्रपति ओबामा का भारत आना ईश्वर के अवतार की तरह की परिघटना हुई। भारत परमाणु संधि, थोक व खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश और ‘मेक इन इंडिया‘ जैसे नारों के साथ अमेरिका के सामने गांधी की रीढ़ की हड्डी के बावजूद झुक रहा है। गांधी का मतलब केवल हाथ में झाड़ू लेकर, महंगे कपड़े पहनकर, टेलीविजन के कैमरे के सामने खड़े होकर सड़कों की सफाई करने भर से रह गया है। अमेरिका संक्रमण की बीमारियां, कुत्सित संस्कृति, मरी हुई दवाइयां, घातक हथियार और झूठे आश्वासन देने का मुखौटा लगाए भारतीय राजनयिकों के जेहन में घुस गया है। गांधी होते तो ओबामा भारत को सीख कहां दे पाता। उन्हें सहस्त्राबदी का नायक बनाकर भी अमेरिका को बापू का बुत उनके विचारों से ज्यादा अच्छा लगता है।

आजादी की दहलीज पर गांधी ने कहा था वाइसराॅय भवन से शुरू करके बड़ी इमारतें अंगरेजों ने हुकूमत की मूछों पर ताव देने के लिए बनाई हैं। उन्हें जनसुविधाओं की जगहें बना देना चाहिए। राष्ट्रपति भवन में यदि कोई महाविश्वविद्यालय बन पाता। वह भारत की संस्कृति, इतिहास, धर्म, समझ, चुनौतियों, संभावनाओं और विचारों का जीवंत मनुष्ययान होता। पूरा हिन्दुस्तान उसमें समेटा जा सकता था। गांधी ने तो पाखाना को भी संस्कृति का बैरोमीटर कहा था। आज देश के उद्योगपतियों, राजनयिकों और नौकरशाहों सहित उच्च मध्यवर्ग और होटलों आदि के शौचालयों में इतना अधिक पानी बहाया जाता है। उतना किसानों को खेती की सिंचाई के लिए भी नहीं मिलता। सरकारें आग्रह कर रही हैं। प्रत्येक घर में जलयुक्त शौचालय अवश्य बनाए जाएं। सरकारें बता नहीं पा रही हैं कि देश के प्रत्येक व्यक्ति के लिए पेयजल की औसत उपलब्धि का क्या आंकड़ा है? सुप्रीम कोर्ट तक ने कहा है कि स्वायत्तशासी संस्थाएं पर्याप्त मात्रा में पेयजल उपलब्ध नहीं कराने का भी जनता से टैक्स वसूल कर सकती हैं। गांधी होते तो कानून की व्याख्या करते।
साभार:कनक तिवारी

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