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एलोपैथिक डॉक्टर आयुर्वेद के विकास में बाधक क्यों ?

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Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:
आयुर्वेद महाविद्यालय में पहले छात्रो का प्रवेश बीएससी प्रथम वर्ष के अंको के आधार पर होता था । बाद मे मेडिकल और इसकी पीएमटी एक हो गई । जिन छात्रो को चिकित्सक बनने का जुनून रहता था वो छात्र मेडिकल मे न होने पर यहां प्रवेश ले लेता था । इस तरह काफी समय चला । इसके बहुत फेर बदल हुआ, जिससे हम लोग भी वाकिफ नही है । फिर आगे चलकर पुराने इंटीग्रेटेड कोर्स मे भी राष्ट्रीय स्तर पर रोक लगा दी गई ।
पता नही एक आयुर्वेद स्नातक जिसकी सीमाऐ भी सीमित है, वो इन एलोपैथिक चिकित्सको के लिए कैसा खतरा बन गया, समझ से परे है । एक तरफ मार्डन मेडिकल के डा. जहा दूरस्थ अंचलो के जाना नही चाहते, वही ये भी इच्छा रखते है कि इस ऐलोपैथी का इलाज दूसरे पैथी से पास हुआ डॉक्टर न करे । भले दूरस्थ अंचलो के लोग बेमौत मर जाएं जाये, पर इस चिकित्सा पद्धति का पूर्ण अधिकार इन्ही लोगों तक सीमित रहना चाहिए । कोई भी चिकित्सा पद्धति मानव कल्याण के लिए है । जब एलोपैथिक डॉक्टर दूरस्थ अंचलो मे जाना नही चाहते तो वहां के लोगो के चिकित्सा के मौलिक अधिकार से वंचित रखने का दोषी कौन होगा ? अगर ये न जाए तो इसका मतलब ये कि वहां के लोग बिना चिकित्सा सुविधा के रहे । यही मापदंड एलोपैथिक डॉक्टरों ने पैथोलॉजी के लिए भी किया । जिसके कारण बंदिश के चलते जो टेक्नीशियन दूरस्थ अंचलो मे सेवा दे रहा था उसे बंद करा दिया गया । यही कारण आज कि लोग छोटी छोटी इन्वेस्टिगेशन के लिए परेशानी मे पड़ रहे है । यहां भी वही तर्क है, जब ये टेक्नीशियन वहां नौकरी करता है तो रिलायबल है, पर स्वतंत्र होने पर समाज के लिए घातक है । यह कैसे संभव है कि छोटे छोटे जांच के लिए हर समय कोई शहर का रूख करे और जहां ज्यादा पैसा लगेगा वही पूरा दिन तकलीफ अलग से पाए । पर किसी को इससे क्या लेना देना? बस उसे जांच पर पूरा अधिकार है । यह छोटी छोटी बाते है, पर इसका असर दूरस्थ व ग्रामीण लोगो के दिनचर्या मे कितना असर पड़ता है, ये इससे अंजान भी नही है । पर व्यवसायिकता मानवीयता पर भारी पड़ती है, इस कटु सत्य से तो इंकार नही किया जा सकता । अभी यह आलेख क्रमशः जारी रहेगा ।
लेखक:डा.चंद्रकांत वाघ(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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