कानपुर में डेढ़ सौ करोड़ रुपए की इत्र से क्या उखड़ी टाइल और टोटी की भी गंध आएगी ?
-दयानंद पांडेय की कलम से-
कानपुर में डेढ़ सौ करोड़ रुपए की जो इत्र की नक़द गमक मिली है , अगर ठीक से जांच हो जाए तो तय मानिए कि इस नक़दी से लखनऊ के विक्रमादित्य मार्ग से उखड़ी टाइल और टोटी की भी गंध आएगी। टोटी यादव ने तब टाइल नहीं उखड़वाई थी , नीचे गड़ी इत्र की यह गड्डियां निकलवाई थीं। नहीं दुनिया में ऐसा कौन टाइल है , जो उखाड़ने के बाद भी लग जाता है। यह नक़दी हज़ारो करोड़ की थी। एजेंसियों को अभी और छापे डालने होंगे। संजय लीला भंसाली की फ़िल्म गुज़ारिश में ए.एम.तुराज़ का लिखा एक गीत याद आता है :
के तेरा ज़िक्र है या इत्र है
जब-जब करता हूँ
महकता हूँ, बहकता हूँ, चहकता हूँ
शोलों की तरह
खुशबुओं में दहकता हूँ
बहकता हूँ, महकता हूँ
तेरी फ़िक्र है या फक्र है
जब-जब करता हूँ
मचलता हूँ,
उछलता हूँ
फिसलता हूँ
पागल की तरह, मस्तियों में
टहलता हूँ, उछलता हूँ, फिसलता हूँ
बस अपनी पसंद और तबीयत के हिसाब से इस रुमानी गीत में टाइल और टोटी के भ्रष्टाचार का भी संयोजन कर लीजिए। नतीज़े में हज़ारों करोड़ रुपए के उखाड़े जाने की गमक भी मिल जाएगी। फिर कल्पना कीजिए कि टोटी यादव गा रहे हैं :
मचलता हूँ,
उछलता हूँ
फिसलता हूँ
सपरिवार क्वारण्टीन में हैं तो वैसे ही थोड़े ही। बड़ी गणित लगाई है। यह इस टाइल में दबी इत्र की ही गरमी थी कि टोटी यादव ने वैक्सीन न लगवाने का बड़ी हेकड़ी और हिकारत से ऐलान किया था। पर क्या कीजिएगा गांव में भोजपुरी में एक कहावत कही जाती है उस का हिंदी में संसदीय अनुवाद यह है कि कितनी भी चतुराई से पानी में किया गया मल विसर्जन छुपता नहीं है , देर-सवेर तैर कर ऊपर आ ही जाता है। तो फिकर नॉट ! अभी और भी इत्र गमकेगा। महकेगा। बहकेगा भी। आख़िर समाजवादी इत्र है। सो चहकेगा भी।
साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)