


Positive India: ‘भेलवाँ’ आज दिन चढ़े मंदिर के पीछे नदी में उतर गई थी। – उसे दंतेवाड़ा का वह तलछट हमेषा से अपनी ओर खींचता था। और यह नही या यूं कहिये दो नदियों का संगम जिसका नाम था ‘षंकिनी- डंकिनी…’। दोनों नदियों का संगम भी कितना अलग एक नदी लाल तो दूसरी सफेद…। दोनों सूत भर के फासले पर अलग अलग रंगों के हुआ करते थे। और अब फासले-दूरी मिटती तो ललछौंवे हो जाते।
आज तो गांव में मेला भरने वाला था भेलवां जैसी अनेको बालाओं ने जाने कितने दिनों से तैयारी कर रखी थी। पायड़ी (स्थानीय पायल) ककनी (कंगन) को तालाब पार जाकर इमली से मांज (रगड़) कर चमकाया था। कौड़ियों की माला गले में, बाजू में नागमोहरी और बालों का खोपा (जूड़ा) बना कर भेलवाँ ने अपना चेहरा तालाब के पानी में निहारा। अपने ही रूप को ब्रम्हातुल्य (स्वयंमुग्घा) होकर शरमा गई।
दंतेवाड़ा शक्तिपीठ का होना अपने आप में समूचे प्रदेश को ऊर्जा से लबालब कर देता है। घने वन, भरपूर जलप्रपात, उसुत्तुंग पहाड़, वनाचर, और पहाड़ी मैना। भेलवाँ कभी-कभी सोचती थी यह मैना जो बिल्कुल मानव की बोली बोलती है, जरूर पूर्व जन्म में कोई उर्वषी ही रही होगी। जिसे श्रापग्रसित होकर मैना का रूप घर धरती पर आना पड़ा होगा। आज इमली के घने वृक्षों के नीचे ए.सी. को भी मात कर दे ऐसी ठंडी हवा चल रही थी। रंग बिरंगी क्लिप, प्लास्टिक की चूड़ियों, पान की दुकानें, स्थानीय बोबो (पकवान) और न जाने क्या-क्या? सल्फी (मध) को लिये दोने (पत्तों की सी हुई कटोरियां) को कतारें और इन सबसे बढ़कर मुर्गा लड़ाई का भी आयोजन पूरे हुजूम को अपनी ओर खींचे जा रहा था। भेलवां ने स्थानीय लुंगी से अपना चेहरा धूप से बचाने के लिये ढंक लिया था। सिर पर बंधे खोपे (जुड़े) को ठीक करते-करते अचानक किसी से उसकी नजर मिली। जाने कैसे हृदय ने धड़कना शुरू किया, नेह का पुनः संवादहीन संप्रेषण से ‘कोयलू’ से बंध गया। कोयलू हां कोयले जैसा काला रंग छः फुटिया, बस्तर शिल्प सी चपटी नाक, वृषभ स्कंधा, बांहों की मछलियां पुष्ट थी…। शरीर ऐसे सुगठित था जैसे कि जिम में वर्षो जाकर वर्जिश किया गया हो। अब तो यह हर मेले हाट में मिलने का बहाना तय हो चला था…। स्थानीय आदिवासी, सरल, सहज नैसर्गिक भोलेपन से लबालब वो भला शहर के उथले-चमचमेपन से कहाँ वाकिफ होते थे…।
रात हुई आदिवासी लेका-लेकियों (लड़के, लड़कियो) का हुजुम लोगगीत गाते-गाते गन्ने की खेतों की ओर जा रहे थे। धवल चंद्रिका अपनी बाकी चितवन से पूरे गन्ने की खेतों में पसर चुकी थी। पूरी सफेद चादर सी बिछी थी। पर इसमें किंशुुक (पलाश के फूलों) भला कब पीछे रहने वाले थे। उनके वितान (पराग के डंठल) तन चुके थे। जैसे अपना शीश उठाकर देखने के प्रयास में उलझ ही पड़े थे। आदिवासी समाज में जहाँ घोटूल जैसी स्वस्थ परंपरा रही है वहाँ कन्या द्वारा अपने वर का चुनाव आज भी तथाकथित सभ्य, फूहड़ उच्चश्रृंखल समाज को मुंह चिढ़ाते हैं। कोयलू ने भेलवाँ से पूछा ‘‘मोचो संग जोड़ी बनाइबिस, (मुझसे विवाह करोगी)।’’ भेलवां ने नजर नीचे कर हामी भर दी…। दिन बीतते गये जंगलों के उत्पाद, जंगल पर निर्भरता ही उनके सहज वैवाहिक जीवन का मार्ग प्रशस्त कर रहा था। कुछ अनापेक्षित घटने लगा भेलवां के जीवन में । खाकी वर्दी पहने सिर पर लाल रिबन बांधे युवकों की टोली उसके घर में प्रवेश किया। हाँ वो प्रत्येक घर से नौजवानों को छांट-छांटकर अपनी सेना ‘लाल ब्रिगेड’ में शामिल कर जबरिया उठाकर ले जाने ही गाँव में आये थे। भेलवां के पिता ने विरोध किया तो रायफल की मूंठ से तीव्र आघात कर उन्होंने हुंकार भरी। ‘‘कोई बले नि बोलले उनचो असनी हाल होउआय’’ (जो भी मना करेगा उसका यही हश्र किया जायेगा)
अब भेलवां बदहवास जंगलों में फिरती थी, कोयलू की कोई खोज खबर नहीं। अभी तो मधुमास भी नहीं बीता था। यह विरह-वैधव्य आ पहुँचा। अचानक रात को कुंडी की आवाज से किसी ने पुकारा। भेलवां दरवाजा खोलो…। बेलवां ने धड़कते हृदय से, शंकित मन, बुझे साहस से दरवाजा जैसे ही खोला, भेलवाँ को देख चकित रह गयी। सिर पर लाल रिबन, खाकी वर्दी, हाथ में रायफल। भेलवाँ को उसने घसीटकर अपने साथ कर लिया। आज उसकी पेशी थी दलम के मुखिया के सामने। भेलवाँ को प्रशासन के खिलाफ मुखबिरी का काम जबरन सौंपा गया। उसकी कनपटी रायफल तानकर स्वामीभक्ति सौगंध दिलाई गई। कहाँ टेसू भेलवाँ के गालों में हंसता था, उसके बालों में सूरजमूखी दहकता था, पलाश दंतपंक्ति में खिलखिलाता था, चाल में मधूक (महुआ) झरता था। वहाँ अब सूनी कलाइयां, छबरीले बाल, मर्दों सी पोशाक, पायड़ी के जगह बूटों ने उसकी काया ही पलट दी थी।
आज दंतेवाड़ा में नागा बटालियन आने वाली थी। मंदिर के पीछे आकर वो शंकनी डंकीनी के पानी से अपने आप को शुद्ध कर माँ दंतेश्वरी को प्रणाम करेंगे। हुकुम जारी हो गया था। जैसे ही बटालियन नदी तट पर आयेंगे भेलवां पहाड़ी मैना की आवाज से सीटी बजायेगी। उसके नक्सलाइट अपना काम करेंगे। भेलवाँ अनमनी सी नदी तट पर बैठी थी। सफेद और लाल पानी जहाँ मिलते थे उस शंकिनी डंकिनी नदी को देख कर सोचने लगी। निर्मल मन आदिवासियों का सफेद पानी की तरह ही था जिसमें नक्सलाइटों ने खूनी रक्तपात से लाल रंग मिला दिया था। मेरे ही सखा, लोग मेरे ही बस्तर में मेरे ही द्वारा हताहत होंगे?
इतने में कनपटी से रायफल का कोर आ डटा। कोयलू ने पूछा याद है ना। इधर बटालियन के पदचालन की आवाज आयी पर एक सेकेण्ड के हजारवें हिस्से से भी कम समय से अचानक दो गोलियाँ चलीं ? दो शव शंकिनी-डंकिनी के पास पड़े थे। पहला भेलवाँ का दूसराकोयलू का । कोयलू के रक्त से शंकिनी-डंकिनी का पानी ललछौवाँ हो चला था। भेलवां ने अपने रक्त से बस्तर की भूमि को रक्तरंजित करने से इंकार करने हेतु कोयलू के शरीर को छलनी कर दिया। इसके बाद अपनी जन्मभूमि से गद्दारी के संताप से अपनी कनपटी को भी छलनी कर लिया। भेलवाँ के शरीर रक्त रंजित होकर रक्तिम आभा से ललछौंवी मृत हो चली थी। हाँ पानी ललछौंवा होकर बस्तर की पीड़़ा को बता रहा था। कौन कहता है शंकिनी-डंकिनी कुछ कहते नहीं। क्या उनका ललछौंवाँ होना पर्याप्त नहीं है…।
रजनी शर्मा बस्तरिया
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