Positive India:भला शक्कर, चीनी की कोई बास होती है भला….। हाँ क्यों नहीं होती? हल्की सी पर जिस पर न्यौछावर हो जाये उसके मिठास से लबालब कर दे। छोटा सा मोहल्ला नाम का ‘‘डोकरीघाट’’ पारा जाने क्या सोच कर उस मुहल्ले (पारा) का नाम रखा गया होगा। यहाँ तो सभी वय के लोग रहते हैं। इस मोहल्ले के मुहाने के बांयी ओर के मोड़ पे थी एकछोटी सी गुमटी। यहीं विराजते थेे नारायण काका। मिर्जापुरिया मिजाज, जौनपुरिया पान की लाली, उबलती आंखे जिनमें हमेशा सुरमा अँजा होता था। खादी की बंडी, धोती, पैर में पनही, सायकल की सवारी यही उनका एक बारगी दिखने वाला व्यक्तित्व था। जाने कौन सी मजबूरी रही होगी जो परदेश से कमाने खाने यहाँ बस्तर को ठौर बनाया। पहले पहल एक जन, फिर लुगाई, फिर पतोहू फिर बेटा धीरे-धीरे कुनबा उस खपरैल वाले घर में समा गये। अल सुबह चाची का अठ्ठनी भर चंदा टिकुली माथे पर दपदपा उठता। कलाई भर सतरंगी चूड़ियाँ मजाल है कि चाची के आज्ञा के बिना टस से मस हो जाए। चाहे जितना आंगन लिपवा लो, चने में हल्दी पानी का छिड़काव करवा लो। पान की गिलौरी हमेशा चाची के मुंह में दबी मिलती। हाँ चने की दुकान ही तो उनके आश्रय का पहला पड़ाव था। शाम को चार बजे जब चने फूटकर सोने के हो जाते और बहती हवा आस-पास के मोहल्ले में इसकी खुशबु की चुगली कर आती तो इस छटा का वर्णन शायद ब्रम्हा जी भी ना कर पाए। चने को पहले पहर हल्दी पानी छिडकर सुखाया जाता। फिर रेत वाली कढ़ाई में सिर में घुंघट डाले चाची। भट्टी में डालती तो चने मानो चाची के हाथ के ‘‘पारस’’ का स्पर्श पाकर सोने से दमकने लगते। मानो कुबेर के खजाने में स्वर्ण दानों का अंबार लगा है। ऐसे ही फूटे हुए चने की ढेरी लगती। चाची एक हाथ से घुंघट ठीक करती। तो दूसरे हाथ से आग तेज करती। आंँच की तेज, श्रम की भट्टी के तपकर नारायण चाचा और चाची कुंदन से दमकने लगते। माथे पे पसीने की बूंदे तो ऐसी चमकती थी कि देव पात्र में तुलसी दल मिश्रित जल हो। चाचा ढेरी पे ठोंगों (पुडियाँ) की बारात लिये बैठे रहते और आने वालों को उनकी माँग, मुद्रा के सामर्थ्य के अनुरूप चना दिया करते।
उनके दुकान पर जाने कितने राहगीरों ने सौंधे चने खाकर अपनी यात्रा का आरंभ किया होगा। इतवार के हाट में मेला सा उनकी दुकान के सामने सजा होता था। छोटे बच्चे बड़ों की कोहनी के नीचे से सिर पेल कर अपने लिये चना ले लिया करते थे। चाचा की आँखे भी ऐसी सजग ही एक हाथ से सयाने तो दूसरी हाथ से बच्चों को चने की पुड़िया देते जाते। बच्चों की आंखो के मनुहार और पैसे की कमी को चाचा फौरन ताड़ जाया करते और चने के दाने दोचार ज्यादा ही बच्चों को मिल जाया करते थे। पर कम नही।
दिन बीतते गये। मोहल्ले का अपनापन ‘‘नकार की वर्तनी में रचा छंद’’ सा होता था। परदेश के बाशिंदों को इस शहर ने अपनाया तो उन्होंने भी अपनी चीनी (मिठास) यहां की फिजाओं में घोल दी। किसके घर पुराण है, कथा है, किसी बिटिया का व्याह है.. यह सब चाचा को पता होता। आते जाते जब तक हर व्यक्ति से बात नहीं कर लेते नारायण चाचा का खाना ही नही पचता था।
एक दिन पैदल आते वक्त आवाज आई बिटिया। जी चाचा जी। येे क्या…? उन्होंने गाल पर उगे एक्ने, मुहासो की बागड़ को देख कर पूछा । बिना उत्तर की प्रतीक्षा से कहा ‘‘तनिक चिरौंजी छोब लीजो’’ (चिरौंजी पिसकर लगा लेना) इन मुहांसो ने जो बिन बुलाये अतिथि के समान मेरे गालों में कब्जा कर लिया था। इसके कारण मेरे अठ्ठाहास भरे दिन जाने किस पंचाग में खप रहे थे।
समय बितता गया वह चने की दुकान अब पक्की छत वाली जलेबी और समोसे की दुकान में तब्दील हो चुकी है। बेटों ने दुकान सम्भाल लिया था। विवाह के कई वर्षों बाद मेरा जब उस रास्ते से गुजरना हुआ तो कृषकाया मैली धोती में एक जोड़ी उदास आंखों को अपनी ओर तकते पाया। पोपले मुंह से आवाज आई चुम्मन की बिटिया हो ? पीहर आई हो ना। हां दद्दा। बूढ़ी आंखों की पुतलियां फैल गई। पर यह क्या । अपने दुकान से बेदखल। बेटों ने नकार दिया था। चाची स्वर्ग सिधार चुकी थी। बेटों के दुकान पे गरम चाशनी में तर-बतर जलेबियाँ निकाली जा रही थी। पर उसकी मिठास अब कहाँ। जो इस जर्जर काया ‘‘चिनी बास’’ में थी। अपनो से मिले आघात ने नारायण चाचा के चीनी जैसी मीठी जबान से वाणी ही छिन ली। अच्छा ही किया विधाता ने ‘‘सुपात्रों के लिए सुपात्रों द्वारा चिनी से बने पकवान होते हैं।’’ जहाँ चाशनी में पगे पर ‘‘भावों से कसैले पकवान’’ बिक रहे हों भला वहाँ ‘चिनीबास’ चाचा का क्या काम ? जिनके पोर-पोर में मिठास भरी होती थी। चिनीबास तो चाचा थे। चिरौंजी से भरा दोना उनके हाथों में पकड़ाते ही आंखे भीग गई। श्रवण यंत्र (कान) से स्वरलहरियाँ टकराई….। चिरौंजी छोब ली जो बिटिया….। आप चिनीबास ही रहेंगे चाचा सदैव मेरे लिए चिनीबास। … च से चाचा, च से चना, च से चिरौंजी, च से चिनीबास आप रहेंगे सदा चिनीबास।
– रजनी शर्मा बस्तरिया
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