


जाके पांव न पड़े बिवाई वो क्या जाने पीर पराई । आज जब खुद पर यही स्थिति आ गई है तो योग्यता की बात की जा रही है । कितनी विडंबणा है सत्तर साल से इसी राजनीति की बदौलत अपनी जमीन बनाने वाले आज ये बात करते है तो शोभा नही देता । जिस समय 98% 99% मिलने के कोई मेडिकल कालेज से कोई आई ए एस जैसे से कैरियर मे मुश्किल से पचास प्रतिशत वाले के लिए आउट हो जाता तो उस समय कोई तकलीफ महसूस नही हुई क्योकि उस समय अपना राजनीतिक हित सध रहा था । उस समय भी बेचैन करने वाली खामोशी राजनीतिक हलको मे दिख रही थी जब युवा वर्ग वी पी सिंह के समय आरक्षण के विरोध मे अपने को क्षुब्ध होकर जला रहे थे तब इनमे से कोई एक बंदा तो कुछ बोलता तब किसी के भी हलक से आवाज तक नही निकल नही रही थी । पता नही कितने युवाओ ने अपनी जान दे दी उस समय किसी को भी इतराज नही था । जब देश जिगनेश मेवानी के राजनीति मे झुलस रहा था तो भी कोई मतलब नही था । वही जाट आंदोलन के दौरान गुर्जर आंदोलन के समय भी देश को हो रहे आथिर्क नुकसान व आम आदमी को हो रहे तकलीफ से भी कोई परेशानी नही थी । यही अभनपुर है जो सामान्य सीट है पर अभी तक जातिय व्यवस्था के चलते आज तक एक सामान्य व्यक्ति विधायक सीट पर काबिज न हो सका तब कोई तकलीफ नही । क्योंकि सामान्य वर्ग का तो कोई हक ही नही है । सबसे बड़ी दुर्भाग्य बात सुप्रीमकोर्ट के निणॆय के बाद भी एससी-एसटी बिल को पास कराने के समय भी अपने राजनीतिक हित के लिए खामोशी अगर आज ये दिन पैदा कर रही है तो मेरे हिसाब से कही भी गलत नही है । वा भई वाह जब खुद पर गुजरे तो अन्याय पर बाकी पर गुजरे और खुद का राजनीतिक हित साधे तो न्याय ? ये एक ऐसा विषय की इसके अन्याय पर पुस्तक तक लिखी जा सकती है । आज लखमा जी भी इतने बड़े पद पर इसीलिए सुशोभित है कि योग्यता के पैमाने के बदले जात पात धर्म जिसका राजनीतिक धम॔ यही रहा है राजनीति भी यही रही है आज उनके अस्तित्व पर बन आई है तो सोचने को निकले है इससे बड़ी बात क्या हो सकती है । चलो देर से ही कुछ तो पता चला ?
डा . चंद्रकांत रामचंद्र वाघ
Note:यह लेखक के अपने विचार है।