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आजादी के प्रामाणिक खुद्दार संघर्षधर्मी जननायक की याद में अगस्त की भारत कथा

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Positive India: Kanak Tiwari:
अंगरेजी कैलेंडर के अनुसार अगस्त का महीना नए भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। एक अगस्त को तिलक जयंती से शुरू होकर 2 अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन और 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस का जन्मदिन इसी माह होता है। कई क्षेत्रीय और स्थानीय त्यौहार भी अगस्त से अपना अस्तित्व मांगते हैं। इस साल छत्तीसगढ़ में किसान पर्व हरेली सरकार के प्रोत्साहन से मनाया जा रहा है। गांधी, सरदार पटेल, नेहरू और सुभाष बोस आदि के नेतृत्व में आजादी का आंदोलन 9 अगस्त 1942 को परवान चढ़ा था। यह महीना पाकिस्तान की स्वतंत्रता का दिन भी अपनी छाती पर टांक लाया।

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मुकम्मिल आजादी का ऐलान लोकमान्य तिलक के ऐतिहासिक नारे ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है‘ में हुआ। उन्हें अंदमान की जेलों में सड़ाया गया। वहां अद्भुत प्रतिभाशाली तिलक ने दुर्लभ ग्रंथ लिखे। निखिल वागले सहित कुछ बुद्धिजीवियों ने तिलक को सांप्रदायिक तथा अतिवादी हिन्दू कहने में गुरेज नहीं किया है। उनके चरित्र की कंटूर रेखाओं का सावधानी से परीक्षण करने पर सेक्युलरिज्म के प्रति तिलक की धार्मिक सद्भावना सही परिप्रेक्ष्य में उकेरी जा सकती है। आजादी के आंदोलन के वे अकेले नेता रहे जिनका स्वामी विवेकानन्द से प्रत्यक्ष परिचय होने से उन्होंने गंभीर विचार विमर्श भी किया।

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महात्मा गांधी ने ‘अंगरेजों भारत छोड़ो‘ और ‘करो या मरो‘ जैसे नारों का उद्घोष इतिहास की छाती पर स्वाभिमान के साथ लिखा। गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र ने अलबत्ता ‘करो या मरो‘ के स्थान पर ‘करेंगे या मरेंगे‘ जैसा अनुवाद स्वीकृत करने का आग्रह किया है। उसमें किसी को आदेश देने के बदले स्वेच्छा से देश सेवा में मरने खपने का जलजला दिखता है। जवाहरलाल नेहरू के हाथों 15 अगस्त 1947 को यूनियन जैक को उतारकर तिरंगा फहराया गया। दिल्ली के लालकिले की प्राचीर से जवाहरलाल का दिया गया भाषण वक्त के माथे पर भारत की लकीर है। उनके दौहित्र राजीव गांधी का जन्म 20 अगस्त को हुआ। किसी ने नहीं सोचा होगा कि देश को एक युवा प्रधानमंत्री उसकी मां की हत्या के बाद मिलेगा। फिर वह भी शहीद हो जाएगा। इस वर्ष तो रक्षाबंधन भाई बहन का अद्भुत त्यौहार आजादी के दिन ही आया है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को सबसे लोकप्रिय त्योहारों के अतिरिक्त कालजयी ग्रंथ गीता के प्रवर्तक के कारण अगस्त माह बौद्धिक माह भी हो गया है।

विनायक दामोदर सावरकर के शुरुआती अपवाद के अतिरिक्त हिन्दुत्व विचारधारा ने आजादी की लड़ाई से खुद को अलग रखा। ऐसा नहीं होना चाहिए था। वामपंथियों ने श्रमिक तथा सियासी आंदोलनों में हिस्सा जरूर लिया। गांधी जैसे ढीले ढाले दिखते अहिंसक नेता के कारण वे केन्द्रीय भूमिका से वंचित रह गए। दक्षिणपंथी और वामपंथी इतिहासकारों ने अगस्त क्रांति का इस तरह उल्लेख किया मानो वे घटनाओं के चश्मदीद गवाह रहे हों। विपिनचंद्र, रोमिला थापर, इरफान हबीब, सुमित सरकार वगैरह तमाम वामपंथी इतिहासकारों ने नामालूम, गुमनाम और कमतर घटनाओं को भी सहेजकर नए तरह का वैचारिक प्रवर्तन तो किया। उनकी मान्यताओं से दक्षिणपंथी आग्रहों का टकराव स्वाभाविक है।
आजादी के आंदोलन की गति भगतसिंह सुखदेव और राजगुरु की फांसी के बाद भूचाल की तरह आंकी गई। किसी के वश में नहीं था कि इतिहास की घटनाओं को अपने अनुकूल या नियंत्रित करे। वामपंथी तथा दक्षिणपंथी इतिहासकारों के ब्यौरों में अलग अलग कारणों से मुख्यतः महात्मा गांधी की भूमिका की आलोचना भी होती है। इतिहास बीत गए का बयान है। उसमें भविष्यदृष्टि गूंथी जाती है। कांग्रेस का जनआंदोलन नदी का बहाव था। उसे पक्की सड़क या नहर की तरह प्रारब्ध के हाथों ने नहीं खोदा था। इतिहासबयानी करते समय उन संभावनाओं, विकल्पों और तर्कों को शामिल किया जाना जरूरी होता है जो आजादी के आंदोलन के फलक में पसरे हुए थे। इतिहासकार का कर्तव्य नहीं है कि बताए अमुक समय पर किस व्यक्ति या नेता ने उसकी पश्चातवर्ती समझ के अनुसार कोई गलती कर दी। तर्कों की संवेदनशीलता अपेक्षा करती है कि घटनाओं के कारकों के बावजूद उनकी संपूर्णता में पथ प्रदर्शकों द्वारा कैसे निर्णय किए गए। जनआंदोलन में खोट ढूंढ़ना कतई मुुमकिन है। हो ची मिन्ह, माओत्सेतुंग, लेनिन, फिदेल कास्त्रो, डी वलेरा वगैरह से भी गलतियां हुई होंगी। प्रश्न अगस्त माह की विवरणिकाओं के सहारे बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के मूल्यांकन के औचित्य का है।

1928 से 1947 तक मोटे तौर पर जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय आंदोलन की केन्द्रीय भूमिका में रहे। भगतसिंह और साथियों की फांसी के मुद्दे पर उन्होंने सुभाष बोस के साथ मिलकर गांधी की मुखालफत की। पूरी कांग्रेस आधे आधे में बंट गई। 1938 और 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर सुभाष बोस को पराजित करना किसी के वश में नहीं हुआ। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हुई छिटपुट हिंसा को गांधी रोक नहीं सके। इस कालखंड के ब्यौरों का मार्मिक चित्रण शीर्ष नेताओं ने अपने वैचारिक ग्रंथों तथा आत्मकथाओं में सूक्ष्मता, पारदर्शिता, तटस्थता और प्रामाणिकता के साथ किया है। इन घटनाओं को लाल और भगवा रंग के चश्मों से इतिहासकार देखने का प्रयास करते हैं। वे कांग्रेस-बौद्धिकों को विचारण योग्य नहीं समझकर दरकिनार कर देते हैं। अगस्त माह भारतीय जीवन का स्पंदन है। आजादी मिलने के बाद लोकतंत्र की हालत भले ही बहुत अच्छी नहीं है। फिर भी सुभाष बोस के शब्दों में ‘गुलामी के घी से आजादी की घास बेहतर है।‘

साभार:कनक तिवारी।

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